कैसे हुई चौबीस तत्त्वों की उत्पत्ति और विस्तार?

विनोद कुमार झा
जब समय का आरंभ न था, न दिन था, न रात, न आकाश, न पृथ्वी, न प्रकाश, न अंधकार  तब भी कोई था, जो था, जो रहेगा  वह अनादि, अविनाशी, परमात्मा विष्णु। उनके रोमकूपों में ब्रह्मांड पलते हैं, उनकी सांसों में सृष्टि बहती है, और उनके संकल्प से समस्त जगत की गति चलती है। 

पराशर मुनि की वाणी से निकली यह दिव्य कथा न केवल ब्रह्मांड के जन्म की कथा है, बल्कि उस परम सत्ता की महिमा का गान है, जिसने सृष्टि, पालन और संहार के तीनों कार्यों में अपनी माया और लीला को प्रकट किया। यह लेख उसी दिव्य रहस्य का उद्घाटन करता है, जिसे सुनकर आत्मा चमत्कृत हो उठे, और मन परम शांति का अनुभव करे।

ऋषि पराशर जी ने मैत्रेय मुनि से कहा  "हे द्विजश्रेष्ठ! सुनो, मैं तुम्हें जगत की उत्पत्ति, उसके विस्तार और भगवान विष्णु की अपरंपार महिमा का विस्तारपूर्वक वर्णन करता हूँ, जो अनादि, अनंत, अजन्मा, अव्यय, अविनाशी और विकाररहित हैं।"

भगवान विष्णु ही इस चराचर जगत के मूल कारण हैं। वे एक ही होते हुए नाना रूपों में प्रकट होते हैं  स्थूल और सूक्ष्म रूपों में, अव्यक्त (कारण) और व्यक्त (कार्य) में, और अपने अनन्य भक्तों की मुक्ति के हेतु।

वे ही इस विश्व की उत्पत्ति (ब्रह्मा), पालन (विष्णु) और संहार (शिव) के स्वामी हैं। उनके इच्छा मात्र से प्रधान (प्रकृति) और पुरुष (पुरुष तत्त्व) में क्षोभ उत्पन्न होता है, जिससे सृष्टि के चक्र का प्रवर्तन होता है।

सृष्टि के पहले की अवस्था: जब प्रलयकाल आता है, तब यह सम्पूर्ण जगत प्रधान (प्रकृति) में लीन हो जाता है। उस समय न रात्रि होती है, न दिन, न आकाश, न पृथ्वी, न प्रकाश, न अंधकार  केवल वह अविनाशी, अनिर्वचनीय, अद्वितीय परब्रह्म शेष रहता है, जिसे महर्षिगण ‘वासुदेव’ के नाम से जानते हैं।

चौबीस तत्त्वों की उत्पत्ति: पराशर मुनि कहते हैं “हे मैत्रेय! वह परब्रह्म विष्णु ही प्रधान, पुरुष, व्यक्त और काल के रूप में प्रकट होते हैं। जब प्रधान और पुरुष एक-दूसरे के संपर्क में आते हैं, तब महत्तत्त्व उत्पन्न होता है, जिससे अहंकार और तन्मात्राएँ (शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गंध) उत्पन्न होती हैं।"

महत्तत्त्व : सृष्टि का पहला व्युत्पन्न तत्त्व।

अहंकार : राजस, सात्त्विक और तामस भेदों में विभक्त।

पंच तन्मात्राएँ : शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गंध।

पंच भूत : आकाश, वायु, अग्नि, जल, पृथ्वी।

ज्ञानेन्द्रियाँ : श्रोत्र, त्वक्, चक्षु, जिव्हा, घ्राण।

कर्मेन्द्रियाँ : वाक्, पाणि, पाद, उपस्थ, पायु।

मन : ग्यारहवीं इन्द्रिय, जो सबका समन्वय करती है।

इन सबका मिलन एक विराट अंड (हिरण्यगर्भ) की रचना करता है, जिसमें ब्रह्मांड के बीज समाहित होते हैं। उसी अंड से ब्रह्मा उत्पन्न होते हैं, जो रजोगुण से प्रेरित होकर सृष्टि का विस्तार करते हैं। विष्णु सत्त्वगुण से पालन करते हैं, और शिव तमोगुण से संहार करते हैं।

प्रकृति की सात परतें: जैसे नारियल के फल में बाहरी छिलके होते हैं, वैसे ही यह अंड सात परतों से आवृत रहता है  जल, अग्नि, वायु, आकाश, अहंकार, महत्तत्त्व और प्रधान। इन आवरणों के भीतर स्वयं भगवान विष्णु हिरण्यगर्भ रूप में विराजमान रहते हैं, और वही सभी जीवों के हृदय में परमात्मा रूप में प्रतिष्ठित रहते हैं।

विष्णु की लीला: भगवान विष्णु की लीला अलौकिक है। वे स्वयं ही सृष्टा, पालक और संहारक बनकर जगत में रमे रहते हैं, फिर भी उनसे कुछ भी लिप्त नहीं होता। जैसे आकाश में बादल छाते हैं और हट जाते हैं, पर आकाश अडोल रहता है, वैसे ही विष्णु अपने कार्यों में निरपेक्ष रहते हैं।

हे मानव! इस रहस्य को जानकर अहंकार मत पालो। जो अनादि, अजन्मा, अविनाशी, व्यापक और परमकारण है, वही तुम्हारे भीतर भी परमात्मा के रूप में निवास करता है। जो अपने को विष्णु में समर्पित करता है, उसे मृत्यु-सागर भी पार कर देता है।

जो लोग ब्रह्मा, विष्णु और महेश की उपासना करते हैं, वे वास्तव में एक ही शक्ति की आराधना कर रहे हैं, जो सृष्टि, पालन और संहार के पीछे क्रियाशील है।

जब हम इस विराट सृष्टि की उत्पत्ति की कथा सुनते हैं, तब अहसास होता है कि हम सब एक ही चेतना की लहरें हैं। भगवान विष्णु की यह माया, यह लीला यह केवल पुरानी कथा नहीं, बल्कि आज भी चल रही एक दिव्य प्रक्रिया है, जिसमें हम सब सहभागी हैं। जो इसे जान लेता है, वह स्वयं में भी ईश्वर की झलक पा लेता है।


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