कहानी : गंभीर घड़ी

लेखक:  विनोद कुमार झा

 (एक सामाजिक, भावनात्मक और प्रेरणादायक कहानी)

समय एक ऐसा संगीत है जो कभी-कभी इतनी धीमी ताल पर चलता है कि लोग उसकी ध्वनि को पहचान नहीं पाते। जब जीवन सहज होता है, तो हम उसे हल्के में ले लेते हैं। परंतु जब कोई गंभीर घड़ी दरवाज़ा खटखटाती है, तब रिश्तों की असली पहचान होती है। यह कहानी है ऐसे ही एक गांव की, ऐसे ही एक परिवार की, और ऐसे ही कुछ दिलों की जो जीवन की गंभीर घड़ी में खरे उतरे।

बिलासपुर जिले के छोर पर बसा था अमरपुर एक छोटा सा गांव, जहाँ की मिट्टी में पुरखों की यादें और अनगिनत संघर्षों की गंध बसी थी। उस शाम जब सूरज नीम की टहनियों के पार डूब रहा था, गांव के दिल में एक अजीब सी खामोशी पसर चुकी थी।

हरिराम चौधरी, गांव के सबसे अनुभवी और इज़्ज़तदार व्यक्ति, अपने आंगन में खाट पर चुपचाप बैठे थे। उनकी आंखें सामने देख रही थीं, पर ध्यान कहीं और था। बहू लक्ष्मी रसोई में कुछ बना रही थी, पर उसकी चाल में ग़लतफ़हमी की झलक थी  जैसे वह अपने ही भय को भून रही हो।

अंदर कमरे में पड़ा सुरेश  हरिराम का इकलौता बेटा  तेज बुखार में तप रहा था। डॉक्टर की दवाइयां बेअसर हो चुकी थीं। वह जवान लड़का, जिसने अभी एक साल पहले शहर से पढ़ाई पूरी करके गांव की ज़मीन को संवारने का सपना देखा था, अब चारपाई पर पड़ा अपनी सांसों की लड़ाई लड़ रहा था।

गांव में जो हाल ही में नई शादी हुई थी, वही लक्ष्मी इस घर की बहू बनकर आई थी। एक सीधी-सादी, पर समझदार लड़की। वह सुरेश से बेइंतिहा प्रेम करती थी, पर अब जब उसकी आंखों के सामने उसका पति दिन-प्रतिदिन मुरझा रहा था, तो उसका दिल अंदर ही अंदर टूटता जा रहा था।

हरिराम के पास गांव की इज्जत थी, पर अब रुपये नहीं थे। खेत सूख चुके थे, पिछले साल की फसल बर्बाद हुई थी और बैंक का कर्ज पहले ही गले तक चढ़ चुका था। एक तरफ बेटे की जिंदगी, दूसरी तरफ बुजुर्ग अस्मिता। वह असहाय हो गया था।

“बाबूजी,” लक्ष्मी एक रात उनके पास आकर बोली, “मैंने अपनी शादी के गहने निकाल लिए हैं। शहर ले जाइए और इलाज करवाइए।” हरिराम की आंखों में पानी भर आया। वो एक पल के लिए चुप रहे और बोले, “बेटा, ये तुम्हारे अधिकार के गहने हैं… इन्हें मत बेचो।”

लक्ष्मी धीरे से मुस्कुरा दी  “अगर ये गहने मेरे हैं, तो मेरा पति भी मेरा अधिकार है। उसका जीवन बचाना मेरा धर्म है।” अगले दिन सुबह-सुबह गांव की महिलाओं में कुछ सरसराहट थी। सुमित्रा चाची, जो गांव की सबसे बुज़ुर्ग महिला थी, लक्ष्मी से मिलने आईं। उनकी आंखों में करुणा और माथे पर चिंता की लकीरें थीं। “बेटी, हम सब जानते हैं सुरेश की हालत क्या है। हम सब मिलकर कुछ करेंगे।”

धीरे-धीरे हर घर से कोई न कोई मदद करने को तैयार होने लगा। किसी ने चावल दिया, किसी ने गेंहूं। स्कूल मास्टरनी गीता देवी ने अपनी छोटी सी पेंशन से पांच सौ रुपये दिए। रज्जो, जो चाय की दुकान चलाती थी, उसने अपने गल्ले की बचत लाकर लक्ष्मी के हाथों में रख दी।

गांव में पहली बार किसी एक की तकलीफ, सबकी तकलीफ बन गई थी। गंभीर घड़ी ने गांव की आत्मा को फिर से जगा दिया था। हरिराम और लक्ष्मी सुरेश को लेकर जिला अस्पताल पहुंचे। डॉक्टरों ने बताया कि हालत नाज़ुक है और तुरंत इलाज शुरू करना होगा। पैसे तो अब भी कम थे, पर गांव के लोगों के सहयोग ने उन्हें हिम्मत दी थी।

लक्ष्मी दिन-रात उसके साथ लगी रही। खाना खाए बिना, अपनी नींद को भुलाकर, उसने सुरेश को दवाइयों और दुआओं दोनों से सींचा। वह जानती थी कि यह सिर्फ एक बीमारी नहीं थी  यह उनकी नई ज़िंदगी की पहली परीक्षा थी।

हफ्तों बाद एक सुबह जब सुरेश की आंख खुली, तो सामने लक्ष्मी बैठी थी, आंखें लाल पर मुस्कान से भरी। डॉक्टर ने कहा  "अब यह खतरे से बाहर है।" वह पल सिर्फ एक चिकित्सा विजय नहीं था, वह इंसानियत की, रिश्तों की और गांव की एकजुटता की जीत थी।

गांव में जब खबर पहुंची, तो मंदिर में घंटे बजे, बच्चों ने फूल बिछाए और बुजुर्गों ने कहा  “हमने फिर से अपना बेटा पाया है।” कुछ महीनों बाद, सुरेश पूरी तरह स्वस्थ होकर गांव लौट आया। उसने पहली बार खाट से उठकर पूरे गांव के सामने खड़े होकर कहा  “मैं नहीं जानता कि मेरा इलाज किसने कराया, पर मुझे यकीन है कि मेरी मां, मेरी बहू, और मेरे गांव ने मिलकर मुझे मौत से खींच लाया।”

उसने गांव के स्कूल में लाइब्रेरी बनवाई  “सुमित्रा ज्ञानालय।” रज्जो की दुकान के लिए उसने एक नया शेड बनवाया। गीता मास्टरनी को नई कुर्सी भेंट की। और लक्ष्मी के लिए, उसने कहा “तुम्हारा दिया जीवन है, अब हर सांस तुम्हारा ऋण है।”

समय फिर से अपनी लय में चलने लगा। मगर उस गंभीर घड़ी ने गांव की चेतना में एक नया बीज बो दिया था। अब लोग एक-दूसरे की पीड़ा को अपनी पीड़ा समझते थे। अब चूल्हे अलग थे, लेकिन रोटियां साझी। अब हर बच्चा जानता था कि असली वीरता हथियारों में नहीं, अपनों के लिए खड़े होने में होती है।

हरिराम अब भी अपनी खाट पर बैठते थे, पर अब उनकी आंखों में उदासी नहीं, गर्व था। गांव के लोग जब उन्हें “बाबा” कहकर पुकारते, तो वह मुस्कुराकर कहते “गंभीर घड़ी में जो साथ दें, वही अपने होते हैं।”

गंभीर घड़ी हर जीवन में आती है। वह परीक्षा नहीं, अवसर होती है रिश्तों को परखने, मानवता को जगाने और आत्मबल को पहचानने का। अमरपुर की यह कहानी केवल एक गांव की नहीं, यह हर उस दिल की कहानी है जिसने कभी अपनों को खोने के डर से कांपते हुए उन्हें बचाने की जिद की हो। गंभीर घड़ी... एक प्रेरणा है।

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