विनोद कुमार झा
भारतीय महाकाव्य ‘महाभारत’ में अनेक ऐसे पात्र हैं जो केवल युद्धों के कारण नहीं, बल्कि अपने नाम, प्रकृति और कर्मों के कारण भी अमर हो गए हैं। इन्हीं पात्रों में एक विशेष स्थान है अश्वत्थामा का द्रोणाचार्य और कृपी का पुत्र, एक ब्राह्मण योद्धा, जिसके नाम के साथ जुड़ी है एक विचित्र किंवदंती, एक रहस्य, और एक ऐसा शाप जो उसे युगों-युगों तक मृत्युभय और अकेलेपन के गर्त में डाल देता है। लेकिन क्या आपने कभी सोचा है कि उसका नाम अश्वत्थामा ही क्यों पड़ा?
‘अश्वत्थामा’ नाम का उल्लेख महाभारत के अनेक प्रसंगों में हुआ है, लेकिन इस नाम के पीछे की कथा अत्यंत रोचक है। संस्कृत में "अश्व" का अर्थ होता है "घोड़ा" और "थामा" (या स्थामन्) का अर्थ होता है "आवाज़" या "ध्वनि"। तो अश्वत्थामा का शाब्दिक अर्थ हुआ: "जिसकी जन्म-ध्वनि घोड़े के समान थी।"
महाभारत के अनुसार, अश्वत्थामा का जन्म अत्यंत असामान्य परिस्थितियों में हुआ था। उनके पिता द्रोणाचार्य एक महान ब्राह्मण और अस्त्र-शस्त्र विद्या के मर्मज्ञ थे। द्रोण अत्यंत निर्धन थे और अपनी पत्नी कृपी के साथ दरिद्रता की सीमा पर जीवन यापन करते थे। कृपी को संतान नहीं हो रही थी और वे संतान की तीव्र इच्छा रखती थीं।
द्रोणाचार्य, जो शैक्षिक और आत्मिक ज्ञान में उच्च थे, किन्तु जीवन में भौतिक सुखों से वंचित, ध्यान और तपस्या के मार्ग पर चल पड़े। उन्होंने भगवान शिव की कठोर तपस्या की, और वर्षों की घोर साधना के बाद भगवान शंकर प्रकट हुए।
भगवान शिव का वरदान: भगवान शिव ने जब द्रोणाचार्य से वर मांगने को कहा, तो उन्होंने एक ऐसे पुत्र की कामना की जो न केवल अपराजेय योद्धा हो, बल्कि ज्ञान और तपस्या में भी महान हो। भगवान शिव ने उन्हें आशीर्वाद दिया कि वे स्वयं अपने अंश से एक पुत्र को उन्हें देंगे।
कुछ कथाओं के अनुसार, यह पुत्र अश्वत्थामा स्वयं रुद्र के अंश से उत्पन्न हुआ था। कहा जाता है कि भगवान शिव ने जब उसे आशीर्वाद देकर कृपी की कोख में भेजा, तो उसकी शक्ति और तेज इतनी अधिक थी कि जन्म लेते ही उसकी गर्जना एक घोड़े की चिंघाड़ जैसी गूंजी, और उस ध्वनि से पूरी पृथ्वी कांप उठी।
अश्व की ध्वनि के कारण पड़ा नाम: यह वही क्षण था जब कृपी ने देखा कि उनका पुत्र जन्म लेते ही ज़ोर से रोया नहीं, बल्कि एक घोड़े के समान असामान्य और तेजस्वी ध्वनि की गर्जना की। यह ध्वनि केवल एक सामान्य रोदन नहीं थी, बल्कि ऐसा प्रतीत हुआ जैसे कोई शक्तिशाली योद्धा अपनी उपस्थिति का उद्घोष कर रहा हो। द्रोणाचार्य ने कहा, “यह बालक कोई सामान्य मानव नहीं है। इसकी जन्मध्वनि घोड़े जैसी है। अतः इसका नाम होगा अश्वत्थामा।”
नाम के पीछे का दार्शनिक पक्ष: यह नाम केवल एक जन्म ध्वनि का प्रतिबिंब नहीं था, बल्कि अश्वत्थामा के जीवन के समूचे चरित्र का प्रतीक भी था।
अश्व (घोड़ा) : अश्व का संकेत गति, शक्ति, युद्ध-कुशलता और ऊर्जा से है। अश्वत्थामा न केवल एक अद्वितीय योद्धा बना, बल्कि रुद्र-तेज का ऐसा अवतार भी, जिसकी शक्ति से देवता तक भयभीत होते थे।
थामा (ध्वनि या आत्मा) : उसकी आत्मा, उसकी चेतना किसी घोड़े की निर्भय, उद्दाम और अहंकारयुक्त प्रकृति की तरह थी जो न झुकती है, न रुकती है।
इस प्रकार, अश्वत्थामा नाम उसके व्यक्तित्व, उसकी शक्ति और उसके दुर्भाग्य तीनों को प्रतिबिंबित करता है।
अश्वत्थामा का शैशव और नाम के प्रभाव: बाल्यकाल से ही अश्वत्थामा एक विशेष बालक था। अन्य बालकों की तरह उसके मन में केवल खेलकूद नहीं, बल्कि शक्ति, आत्मगौरव और प्रतिशोध की भावनाएँ भी बाल्यवस्था में ही अंकुरित होने लगी थीं। उसे अपने नाम पर गर्व था, और वह यह मानता था कि उसका नाम ही उसका भाग्य है।
किन्तु एक अत्यंत दुःखद घटना उसके मन में आक्रोश का बीज बोती है। वह अपने मित्रों के साथ खेलते समय देखता है कि अन्य बालकों को दूध पीने को मिलता है, परंतु उसके घर में गरीबी के कारण दूध उपलब्ध नहीं है। जब वह अपने पिता द्रोणाचार्य से दूध मांगता है, तो द्रोण कृपी से आटा घोल कर दूध जैसा बनाकर बालक को देते हैं। लेकिन अश्वत्थामा की तीव्र बुद्धि भांप जाती है कि यह दूध नहीं है। इस घटना से उसकी आत्मा आहत हो जाती है।
द्रोणाचार्य इसी अपमान से व्यथित होकर हस्तिनापुर चले जाते हैं, और वहीं से उनके और अश्वत्थामा के जीवन की महाभारत में भागीदारी आरंभ होती है।
अश्वत्थामा और श्राप का संबंध: अश्वत्थामा को महाभारत में एक अत्यंत शक्तिशाली योद्धा, दीर्घायु (अथवा अमर) और एक त्रासदी के प्रतीक के रूप में देखा जाता है। लेकिन जिस प्रकार उसका नाम एक गर्जना से जुड़ा था, ठीक वैसे ही उसके जीवन का अंतिम भाग एक लंबी पीड़ा की कराह बन गया।
कौरवों की पराजय के बाद, युद्ध समाप्त होने को था। अश्वत्थामा, जो दुर्योधन का अंतिम प्रमुख सहयोगी था, उसने रात्रिकालीन षड्यंत्र करके पांडवों के पांच पुत्रों की हत्या कर दी जिसे इतिहास में उत्तरा-वध कहा जाता है। यह कार्य उसे सदा-सर्वदा के लिए कलंकित करता है।
श्रीकृष्ण उसे पकड़वाकर श्राप देते हैं: "तू हज़ारों वर्षों तक जीवित रहेगा, परंतु न कोई तुझे पहचानेगा, न तेरा साथ देगा। तेरे शरीर में सड़न होगी, पीड़ा होगी, पर तू मर नहीं पाएगा।"
यह श्राप उसका दूसरा नाम बन गया एक "जीवित मृत" का नाम। जो जन्म के समय घोड़े के समान गर्जना करता था, वह अब केवल अपने ही हाहाकार की गूंज में जीवित है।
नाम, जीवन और नियति: त्रिकोण का समागम : अश्वत्थामा का नाम केवल एक ध्वनि मात्र नहीं, अपितु वह एक संकेत है:
1. ध्वनि: उसकी जन्म की ध्वनि भविष्य के युद्धघोष की तरह थी।
2. शक्ति: उसका जीवन युद्ध के लिए समर्पित था, परंतु युद्ध ही उसका विनाश बन गया।
3. श्राप: उसकी मृत्यु नहीं हुई, परंतु उसका प्रत्येक क्षण मृत्यु से बदतर बना।
वर्तमान किंवंदंतियाँ: हिमालय की गुफाओं से लेकर नर्मदा के तटों तक, अनेक संतों और साधकों ने यह दावा किया है कि उन्होंने अश्वत्थामा को आज भी जीवित देखा है। कहते हैं, उसकी ललाट पर आज भी शिव का वह रत्न चमकता है जो कभी उसने युद्ध में धारण किया था, और जो अब शाप के कारण उसके घाव बन चुका है। कुछ संतों का कहना है कि वह मौन व्रती है, घावों से पीड़ित है, परंतु उसकी आँखों में आज भी वह तेज है जो युगों पहले हस्तिनापुर में था।
अश्वत्थामा का नाम एक ऐसे पात्र की गाथा है जो स्वयं अपने कर्म, अपने शौर्य, और अपनी चूक के बोझ से चिरकाल तक जीवित है। उसका नाम एक गर्जना था, परंतु उसका जीवन एक आर्तनाद बन गया। अश्व की ध्वनि से आरंभ होकर "अविराम पीड़ा" तक की यह यात्रा एक ऐसा संदेश है कि शक्ति, नाम और जीवन तीनों को संयम और विवेक से संजोया जाए, अन्यथा नाम की गर्जना भी काल के विलाप में बदल सकती है।