विनोद कुमार झा
21वीं सदी का समाज सोशल मीडिया, तकनीक और वैश्वीकरण की चकाचौंध में लगातार बदल रहा है। लेकिन इन बदलावों के बीच एक वर्ग ऐसा है, जो अक्सर अदृश्य रह जाता है हमारे बुजुर्ग। जीवन की संध्या में, जब बच्चे परदेस चले जाते हैं, जीवनसंगिनी साथ छोड़ देती है और मित्र भी छिटकने लगते हैं, तब सोशल मीडिया उनके लिए एक नई खिड़की बनकर खुलता है। यह कहानी सिर्फ एक व्यक्ति, राकेश की नहीं, बल्कि हजारों-लाखों उन लोगों की है जो अकेले हैं, पर अपनी मुस्कान ढूँढने की जद्दोजहद में लगे हैं।
राकेश शर्मा, 60 वर्षीय, रिटायर्ड सरकारी अधिकारी, अपनी ईमानदारी और मेहनत के लिए विभाग में प्रसिद्ध थे। परिवार में पत्नी मीनाक्षी, दो बेटे अमित और रोहित, और एक बेटी नेहा थी। ज़िंदगी दौड़ती रही, बच्चों की पढ़ाई, नौकरी, शादी और राकेश इन सबमें रम गए।
रिटायरमेंट के कुछ महीने बाद मीनाक्षी की अचानक बीमारी और फिर निधन ने राकेश की ज़िंदगी में सन्नाटा भर दिया। जो घर कभी ठहाकों से गूँजता था, अब वहाँ घड़ी की टिक-टिक गूंजने लगी। बच्चे विदेश में व्यस्त थे, आते-जाते तो थे, मगर वो रोज़ की ज़रूरतें, वो साथ का सुख, सब कहीं छूट गया।
राकेश ने शुरुआत में खुद को किताबों, अखबारों, बगीचे और पुराने मित्रों में उलझाया, लेकिन कुछ अधूरा रह जाता। फिर किसी ने उसे सोशल मीडिया का रास्ता दिखाया।
शुरुआत में राकेश को फेसबुक और इंस्टाग्राम समझने में दिक्कत हुई, पर धीरे-धीरे वह इसमें रम गए। सुबह की चाय, बगीचे में खिले फूल, पुराने गाने, कविताएँ, बच्चों की तस्वीरें, युवावस्था की यादें ये सब उन्होंने पोस्ट करना शुरू किया। उनके लिए यह मंच केवल दिखावा नहीं था, यह संवाद, स्मृति और भावनाओं की अभिव्यक्ति का जरिया था। पर समाज की निगाहें कब इतनी उदार रहीं?
राकेश की दुनिया सूनी हो गई। बच्चे विदेश बस गए थे, रिश्तेदार अपनी-अपनी दुनिया में व्यस्त थे। घर की दीवारें, जो कभी हंसी-ठहाकों से गूंजा करती थीं, अब चुप्पी में डूबी रहतीं। राकेश धीरे-धीरे सोशल मीडिया की ओर मुड़ा। उसने एक पुराना स्मार्टफोन निकाला, फेसबुक और इंस्टाग्राम के अकाउंट बनाए, और छोटी-छोटी बातें शेयर करने लगा सुबह की चाय की तस्वीर, बरामदे में बैठकर सूरज की पहली किरणों को निहारते हुए वीडियो, पुराने गाने गुनगुनाते हुए रीलें।
शुरुआत में, कुछ पुराने मित्रों और रिश्तेदारों ने लाइक और कमेंट किए “वाह सर, क्या बात है!” “जिंदगी का मज़ा लीजिए!” पर धीरे-धीरे समाज की नजरें बदलने लगीं। मोहल्ले की औरतें कानाफूसी करने लगीं “पत्नी के गुजरने के बाद यह सब जरूरी है क्या?” कुछ पुरुष हँसते हुए कहते “बुजुर्गों को अब रीलें बनानी शुरू कर दीं!” और कुछ लोग तो पीठ पीछे यह तक कहने लगे “देखना, दूसरी शादी की तैयारी कर रहे होंगे!”
भारत जैसे देश में, विशेषकर छोटे कस्बों और शहरों में, बुजुर्गों के लिए एक ‘आदर्श छवि’ निर्धारित की जाती है संयमित, गम्भीर, पूजा-पाठ में रत, और परिवार पर समर्पित। जब राकेश जैसे लोग सोशल मीडिया पर अपने अकेलेपन का हल्का-फुल्का मज़ाकिया या भावुक वीडियो पोस्ट करते हैं, तो समाज में कानाफूसी शुरू हो जाती है: “पत्नी के बिना इनको चैन नहीं!” “क्या ज़रूरत है इस उम्र में दिखावा करने की?” “दूसरी शादी की तैयारी कर रहे होंगे!” यह वही समाज है, जो खुद टीवी सीरियल्स, फिल्मों, गानों और सस्ते मनोरंजन में डूबा रहता है, पर बुजुर्गों के लिए मानदंड तय कर देता है।
राकेश को यह सब मालूम था। मगर वह रुका नहीं। एक दिन उसने अपनी वॉल पर एक कविता पोस्ट की “जीवन की संध्या में, थोड़ी धूप मैं मांगता हूँ, कुछ हँसी के पल, अपनी उदासी से चुराता हूँ।”
कमेंट्स की बाढ़ आ गई कुछ तारीफ, कुछ तंज, कुछ मौन उपहास। राकेश चुपचाप सब पढ़ता रहा। दरअसल, अकेलापन एक भावनात्मक स्थिति है, न कि सामाजिक कलंक। मनोवैज्ञानिक मानते हैं कि वृद्धावस्था में अकेलापन मानसिक स्वास्थ्य के लिए सबसे बड़ा खतरा बन जाता है। इससे डिप्रेशन, एंग्ज़ायटी, यहाँ तक कि हार्ट डिजीज़ तक बढ़ सकती है। ऐसे में सोशल मीडिया उनके लिए सामाजिक जुड़ाव का माध्यम, आत्म-अभिव्यक्ति का मंच, पुरानी यादों का पुल,और कभी-कभी, नई मित्रता की राह बन जाता है। लेकिन समस्या तब आती है, जब समाज इन गतिविधियों को ‘जरूरत’ की जगह ‘विलासिता’ या ‘अशालीनता’ समझने लगता है।
एक दिन राकेश ने फेसबुक पर लिखा:“लोग कहते हैं, उम्र के इस मोड़ पर संयम रखो, मगर मैंने सीखा है संयम बाहर नहीं, भीतर होता है। जो दिल खुश रहता है, वही संयमित होता है।” यह पोस्ट वायरल हो गई। उनके पुराने मित्र, दूर बैठे रिश्तेदार, यहाँ तक कि उनके बच्चों ने भी सराहना की। मोहल्ले के कुछ बुजुर्ग उनसे मिलने आए, बोले, “भाई, आपने तो हमारी भी आँखें खोल दीं।”
धीरे-धीरे, राकेश एक मिसाल बन गए। उन्होंने मोहल्ले के अन्य बुजुर्गों के लिए एक ऑनलाइन ग्रुप बनाया “हमसफर” जहाँ सभी अपने सुख-दुख, यादें, गाने, कविताएँ, और कभी-कभी आँसू भी बाँटते थे।
भारतीय दर्शन में अकेलापन (विवेक) को साधना का मार्ग माना गया है। चाहे भगवान राम का वनवास हो, शिव का कैलाश में ध्यान, या महावीर-बुद्ध का त्याग एकांत ने आत्म-खोज का रास्ता बनाया। पर आधुनिक समाज ने एकांत को अकेलापन बना दिया, और अकेले व्यक्ति को ‘दया का पात्र’ मान लिया। यह दृष्टिकोण बदलने की ज़रूरत है। हर उम्र में जीने का अधिकार और आनंद का हक़ है।
राकेश की कहानी एक और संदेश देती है बच्चों को अपने माता-पिता के अकेलेपन को समझना होगा। उनकी ज़रूरतें केवल पैसे, दवाइयों और त्योहारों पर मिलने की नहीं, बल्कि संवाद, सम्मान और साथ की हैं।
एक शाम, जब वह पार्क में बैठा था, उसके पुराने मित्र शरद आए। शरद बोले, “राकेश, लोग बातें कर रहे हैं… तुम्हें बुरा नहीं लगता?”
राकेश मुस्कुराया, “शरद, जब मीनाक्षी थी, मेरी दुनिया उसमें सिमटी थी। अब जब वह नहीं है, मेरी दुनिया मुझमें सिमट गई है। क्या अकेलेपन को भी जीने का अधिकार नहीं? अगर मैं सोशल मीडिया पर अपनी खुशी ढूंढता हूँ, क्या यह अपराध है?” शरद कुछ देर चुप रहे, फिर धीमे से बोले, “कभी-कभी हम समाज के डर से जीना ही भूल जाते हैं।”
बेटे अमित और रोहित ने भी देर से ही सही, यह बात समझी। उन्होंने राकेश के ग्रुप में शामिल होकर वीडियो कॉल्स शुरू किए, अपने बच्चों को नाना-दादा से जोड़ने की पहल की। राकेश की दुनिया फिर से रंगीन होने लगी, मगर इस बार समाज की मान्यता का मोहताज हुए बिना।
राकेश जैसे लोग समाज के लिए आईना हैं। वे बताते हैं कि उम्र कोई सीमा नहीं, और अकेलापन कोई अभिशाप नहीं। समाज को चाहिए कि वह बुजुर्गों को हँसते, मुस्कुराते, और सोशल मीडिया पर अपनी दुनिया बनाते देखना सीखे, बजाय इसके कि उँगलियाँ उठाए। अगर कोई अभद्रता करता है, उसे रोका जाना चाहिए। पर जो लोग बस जीना चाहते हैं, उनके जीने के अधिकार में दखल देना, दरअसल समाज की कमजोरी दिखाता है, न कि उस व्यक्ति की।
यह कहानी सिर्फ राकेश की नहीं यह हमारे आसपास के हर बुजुर्ग की कहानी है, जो अकेलापन और समाज के बीच संतुलन बनाने की कोशिश कर रहे हैं। अंत में, जीवन की सुनहरी शाम में, राकेश अकेला नहीं था वह अपनी मुस्कान, अपने शब्दों, और अपने भीतर के उजाले के साथ जी रहा था।
आज ज़रूरत इस बात की है कि हम अकेलेपन को समझें, बुजुर्गों को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता दें,और यह याद रखें कि जीवन के अंतिम पड़ाव में भी खुशियाँ ढूँढना, अपने भीतर के बच्चे को ज़िंदा रखना, सबसे बड़ा साहस है। राकेश की मुस्कान हमें याद दिलाती है कि अकेलापन दुख नहीं, आत्म-खोज की यात्रा हो सकती है अगर समाज उसे अपनाना सीखे।