कविता: अकेलेपन की मुस्कान

 अमरनाथ झा (बचपन झा)


छाँव में बैठा एक मुसाफ़िर,

संध्या की धूप से खेल रहा,

गुज़रे लम्हों की सिलवटों में,

खुद को फिर से सील रहा।

कल तक जो घर की रौनक था,

आज खामोश गलियों में चलता,

कभी तस्वीरों में मुस्कान खोजता,

कभी गीतों में खुद को पलता।

सोशल मीडिया की छोटी स्क्रीन पर,

वह अपनी दुनिया सजाता,

कभी कविता, कभी गाना,

कभी चाय की प्याली दिखाता।

लोग हँसते, कहते  “ये उम्र है क्या?”

“अरे, पत्नी के बिन भी कोई जीता?”

वह चुप हँसकर सब सुनता,

फिर एक और वीडियो पोस्ट करता।

क्योंकि वह जान गया था,

अकेलापन अभिशाप नहीं होता,

जब दिल में उजाला हो,

तो अकेला आदमी भी कारवाँ होता।

कृष्ण की बांसुरी सुनिए,

शिव की तपस्या को देखिए,

राम के वनवास में भी

अधूरा कुछ न पाएंगे।

तो क्यों रुकूं मैं, सोचता है वह,

क्यों न जी लूँ अपनी शाम,

जब तक साँसें संग हैं,

खुद से करूँ हर रोज़ सलाम।

अकेलापन अब साथी है,

खुशियों का एक नया साज़,

जीवन के आखिरी पड़ाव में, 

मिल ही गया खुद का अंदाज़।

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