यहाँ दो बातें गंभीर चिंतन की मांग करती हैं। पहली, पाकिस्तान की यह हड़बड़ी न केवल उसकी सैन्य असुरक्षा को उजागर करती है, बल्कि यह भी दिखाती है कि उसे अपने सीमित संसाधनों और अस्त्रों पर खुद भरोसा नहीं। 350 VT-4 टैंकों के बावजूद पाकिस्तान को लगता है कि भारतीय सेना के 1000 से ज्यादा T-90, T-72 और अर्जुन टैंकों, साथ ही नाग और जैवलीन जैसी एंटी-टैंक मिसाइलों के सामने उसकी जमीन खिसक सकती है। दूसरी तरफ, चीन की भूमिका सिर्फ हथियारों के आपूर्तिकर्ता तक सीमित नहीं, बल्कि दक्षिण एशिया में शक्ति संतुलन को प्रभावित करने वाली शक्ति के रूप में उभर रही है। चीन की सैन्य मदद भारत के लिए चेतावनी है कि उसे अपनी सीमाओं पर केवल पश्चिमी मोर्चे पर ही नहीं, बल्कि पूर्वी सीमा पर भी सर्तक रहना होगा।
भारत के लिए यह क्षण केवल प्रतिक्रिया का नहीं, बल्कि दीर्घकालीन रणनीति बनाने का है। भारतीय सेना की मजबूती, रक्षा तकनीक में आत्मनिर्भरता और वैश्विक मंचों पर सक्रियता उसकी ताकत हैं। परंतु इस सैन्य शक्ति के साथ-साथ भारत को शांति की आवाज़ को भी मजबूत करना होगा। युद्ध की आशंका में फंसे हुए दक्षिण एशिया में अगर कोई राष्ट्र संयम का परिचय देता है, तो वह न केवल शक्ति, बल्कि नैतिक नेतृत्व का भी परिचय देगा। पाकिस्तान को भी यह समझना होगा कि टैंक, मिसाइलें और सैन्य गठजोड़ उसकी आंतरिक और बाहरी समस्याओं का समाधान नहीं कर सकते।
भारत के लिए जरूरी है कि वह अपनी सैन्य तैयारी चाक-चौबंद रखे, लेकिन साथ ही अंतरराष्ट्रीय समुदाय के सामने पाकिस्तान के आतंकी नेटवर्क, उसकी विफल विदेश नीति और उसके भीतर की कमजोरियों को उजागर करता रहे। अमेरिका, खाड़ी देश और अन्य वैश्विक शक्तियों के सामने पाकिस्तान की सैन्य हड़बड़ी को इस रूप में पेश किया जाए कि यह उसकी रक्षात्मक नहीं, बल्कि आक्रामक नीति का हिस्सा है।
अंत में, पहलगाम का हमला केवल सीमा पर हुआ एक हमला नहीं, यह पूरे उपमहाद्वीप की शांति और स्थिरता पर सवाल है। भारत और पाकिस्तान के नेताओं को यह याद रखना होगा कि हथियारों की दौड़ में आखिरी जीत किसी की नहीं होती—हार हमेशा इंसानियत की होती है।