शहर की व्यस्त सड़कों पर सुबह के 9 बजे का समय। चारों ओर गाड़ियों का शोर, हॉर्न की तेज आवाज़, और लोगों की भागदौड़। यह दृश्य हर रोज़ का था। राघव, एक युवा सॉफ़्टवेयर इंजीनियर, उसी भीड़ का हिस्सा था। रोज़ की तरह, उसने जल्दी-जल्दी नाश्ता किया, बैग उठाया और मेट्रो स्टेशन की ओर दौड़ पड़ा। मेट्रो के अंदर भीड़ थी। लोग अपने-अपने मोबाइल में खोए हुए थे। कोई सोशल मीडिया पर स्क्रॉल कर रहा था, तो कोई ऑफिस का मेल चेक कर रहा था। राघव की आँखों में थकान साफ झलक रही थी।
उसका दिन हमेशा एक ही ढर्रे पर चलता था। सुबह उठो, ऑफिस जाओ, देर रात घर लौटो, और फिर वही सिलसिला। लेकिन आज का दिन थोड़ा अलग था। ऑफिस में एक मीटिंग के दौरान, उसकी नजर खिड़की के बाहर हरे-भरे पेड़ों पर पड़ी। उन पेड़ों की हरियाली और खुले आसमान को देखकर वह एक पल के लिए ठहर गया। उसे एहसास हुआ कि जीवन में वह कब से सिर्फ भाग रहा है, लेकिन जी नहीं रहा।
शाम को ऑफिस से लौटते समय, मेट्रो की खिड़की से बाहर देखते हुए राघव को अपना बचपन याद आया। वह समय जब वह अपने गांव में पेड़ों के नीचे खेला करता था, दोस्तों के साथ नदी किनारे दौड़ लगाता था, और बिना किसी चिंता के खुले आसमान के नीचे सोता था। अब वह शहरी जीवन के कोलाहल में फंसा हुआ था, जहां हर पल केवल समय से लड़ाई थी।
अगले दिन, राघव ने ऑफिस से छुट्टी ली। उसने सोचा कि क्यों न एक दिन अपने लिए जिया जाए। वह शहर के एक पार्क में गया। वहां की ताजी हवा, पक्षियों की चहचहाहट, और बच्चों की हंसी सुनकर उसे लगा जैसे उसने अपनी खोई हुई शांति फिर से पा ली।
पार्क में बैठे हुए उसने सोचा, "क्या जीवन का मतलब केवल काम और दौड़-भाग है? या फिर छोटी-छोटी खुशियों का आनंद लेना भी जरूरी है?" उसने तय किया कि वह अपनी जिंदगी को संतुलन में लाने की कोशिश करेगा। अब हर दिन वह एक घंटे अपने लिए निकालेगा, जहां वह प्रकृति के साथ समय बिताएगा, किताबें पढ़ेगा, या बस खुद के साथ रहेगा।
राघव का यह छोटा सा निर्णय उसके जीवन में बड़ा बदलाव लेकर आया। अब वह खुश रहने लगा था। उसने अपने दोस्तों और परिवार के साथ समय बिताना शुरू किया। उसने समझा कि शांति बाहर नहीं, हमारे भीतर होती है। आधुनिक जीवन का कोलाहल कभी खत्म नहीं होगा, लेकिन इस शोर के बीच भी अपनी शांति ढूंढना हर इंसान के लिए जरूरी है। जीवन के छोटे-छोटे पलों में खुशियां तलाशना ही असली संतुष्टि है।
राघव की कहानी हमें यह सिखाती है कि भले ही आधुनिक जीवन की रफ्तार कितनी ही तेज हो, हमें कभी-कभी ठहर कर यह सोचना चाहिए कि हम असल में जी भी रहे हैं या नहीं। जीवन की आपाधापी के बीच खुद के लिए समय निकालना कोई विलासिता नहीं, बल्कि एक आवश्यकता है।
(लेखक विनोद कुमार झा)