(मां के वात्सल्य, त्याग और अंतर्मन की गहराई पर आधारित एक विस्तृत कहानी)
लेखक: विनोद कुमार झा
मां एक ऐसा शब्द जिसकी छांव में दुनिया की सारी कठोरता पिघल जाती है। मां का आंचल सिर्फ कपड़े का टुकड़ा नहीं होता, बल्कि सुरक्षा, ममता, त्याग और निश्छल प्रेम का वह घर होता है, जहां कोई भी बेटा-बेटी थककर लौटे, तो उसकी सारी पीड़ा स्वतः शांत हो जाती है। इसी आंचल की छांव में पली-बढ़ी आर्या की कहानी है यह एक ऐसी कहानी, जहां मां की मौन शक्ति जीवन की सारी बाधाओं पर विजय दिलाती है।
बिहार के मधुबनी जिले के एक शांत गांव में आर्या का जन्म हुआ था। घर साधारण था, पर प्यार असाधारण। उसकी मां शारदा देवी का आंचल मानो उसके लिए चलती-फिरती छाया था।
आर्या जब भी रोती, शारदा उसे अपनी गोद में भर लेती। तलवे फटने तक खेतों में काम करने वाली शारदा के हाथ भले कठोर थे, पर स्पर्श कोमल। रात को लालटेन की पीली लौ में बैठकर वह आर्या को कहानियां सुनाती कभी देवी-देवताओं की, कभी वीर-वीरांगनाओं की, और कभी उन परियों की जिन्हें बस मां की आंखों में देखा जा सकता था।
आर्या अक्सर मुस्कुराकर पूछती, “अम्मा, परियां कहां रहती हैं?”
शारदा हंस देती, “अपने मन में… और मां के आंचल में।” उसे क्या मालूम था कि उसके जीवन की सबसे बड़ी परी वही मां है। समय के साथ घर में मुश्किलें बढ़ने लगीं। पिता बाहर शहर में मजदूरी करते और कमाई बहुत कम थी। कई-कई महीनों तक कोई चिट्ठी नहीं आती। घर का बोझ शारदा पर आ गया।
वह दिन में खेतों में काम करती, दोपहर में दूसरे घरों में चूल्हा चौका, और रात को आर्या की पढ़ाई पर ध्यान देती। आर्या देखती कैसे मिट्टी से सनी हुई मां की हथेलियों में हल्दी की महक रहती और नींद से बोझिल आंखों में भी उसकी पढ़ाई के सपने चमकते।
वह हमेशा कहती, “बिटिया, पढ़-लिखकर एक ऐसी जिंदगी बनाना जिसमें दूसरों को छांव मिले… जैसे तुझे मेरे आंचल से मिलती है।” आर्या की आंखों में भी अब सपनों का रंग उभरने लगा।
जब आर्या दसवीं में थी, पढ़ाई का खर्च बढ़ गया। कोचिंग, किताबें, यूनिफॉर्म सब कठिन लग रहा था। कई बार आर्या खुद से कह देती, “अम्मा, रहने दो, मैं आगे नहीं पढ़ूंगी।” लेकिन शारदा का चेहरा कठोर हो जाता। “कभी ऐसा मत कहना! मेरी बच्ची के सपनों पर छाया आने दूंगी? नहीं!” वह रात को कोयले की भट्ठियों के पास मजदूरी करने लगी। हाथ जल जाते, उंगलियां छिल जातीं, पर बेटी के सपनों में कोई दरार न पड़े—यह उसकी जिंदगी का ध्येय बन गया।
जब भी कोई पूछता, “शारदा, इतना क्यों करती हो?” वह बस इतना कहती, “बेटी का भविष्य ही मेरी पूजा है।”
आर्या शहर आई कॉलेज पढ़ने। नया माहौल, नई चुनौतियाँ, महंगी फीस सब कुछ। कई बार वह थक जाती, टूट जाती, घबराने लगती। तभी शारदा की आवाज फोन के उस पार गूंजती “डर मत बिटिया। जिंदगी का पहिया कभी समतल नहीं रहता। पर मां का आंचल हमेशा तेरे साथ है… गिर मत, संभल जा।” इन शब्दों में जादू था।
चाहे सौ विपत्तियां हों, आर्या फिर उठ खड़ी होती। समय बीता। आर्या ने कड़ी मेहनत की। नौकरी मिली एक बड़ी कंपनी में।जब वह पहली बार सैलरी लेकर गांव आई, तो शारदा के पैरों में रख दी।
शारदा की आंखें भर आईं ।“मैंने क्या किया बिटिया? तूने ही तो मेहनत की है!”आर्या मुस्कुराई, “अम्मा, मेरे सपनों में जान तुमने ही तो भरी। यह जिंदगी मेरी नहीं, तुम्हारी है।” शारदा ने उसे आंचल में छिपा लिया“बेटी, मां का आंचल केवल ढकता नहीं… आगे बढ़ने की हवा भी देता है।”
मां की छांव हमेशा बनी रहती है आर्या शहर में एक बड़ा घर लेकर मां को अपने साथ ले आई।
शारदा सुबह बालकनी में बैठ फूलों को पानी देती, और कभी-कभी आसमान को देखकर सोचती झोपड़ी से शुरू हुआ यह सफर आज इमारतों तक कैसे पहुंच गया? इसका जवाब आर्या देती “अम्मा, मेरी दुनिया की सबसे बड़ी ताक़त तुम हो।” और सच यही था बेटी कितनी भी बड़ी हो जाए, मां का आंचल उसके जीवन का सबसे सुरक्षित आसरा बना रहता है।
‘आंचल की छांव’ केवल कहानी नहीं यह उस सत्य का चित्र है कि मां का प्रेम किसी दीपक की लौ जैसा है खुद जलकर भी उजाला देती है, खुद तपकर भी सामने वाले को ठंडक देती है।
