विनोद कुमार झा
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी द्वारा ‘जीवन सुगमता’ को शासन का केंद्रबिंदु बताए जाने वाला हालिया वक्तव्य केवल एक राजनीतिक कथन नहीं, बल्कि बीते एक दशक में अपनाई गई सुधारवादी सोच की स्पष्ट अभिव्यक्ति है।# सरकार ने जिस तरह से सुधारों को जटिल प्रक्रियाओं से निकालकर सीधे नागरिकों और व्यवसायों के दैनिक अनुभव से जोड़ा है, वह भारतीय शासन व्यवस्था में एक महत्वपूर्ण परिवर्तन को दर्शाता है। वर्ष 2025 में यह बदलाव और अधिक स्पष्ट हुआ है, जब सुधारों का मूल्यांकन कागजी नियमों की संख्या से नहीं, बल्कि उनके वास्तविक परिणामों से किया जाने लगा।
अब तक सुधारों को अक्सर कठिन कानूनों, लंबी प्रक्रियाओं और जटिल अनुपालनों से जोड़ा जाता था। इससे आम नागरिक और छोटे उद्यमी सरकारी तंत्र से दूरी महसूस करते थे। लेकिन केंद्र सरकार की मौजूदा सुधार यात्रा इस सोच को बदलने का प्रयास है। प्रधानमंत्री ने सही ही कहा है कि किसी भी सुधार की असली कसौटी यह होती है कि वह लोगों का बोझ कितना कम करता है। यही कारण है कि हाल के वर्षों में ‘रिफॉर्म इन एक्शन’ और ‘गुड गवर्नेंस’ जैसे अभियानों के माध्यम से सरकार ने यह दिखाने की कोशिश की है कि सुधार सिर्फ नीति दस्तावेजों तक सीमित नहीं, बल्कि जमीन पर महसूस होने चाहिए।
कर व्यवस्था में किया गया बदलाव इस दिशा में सबसे बड़ा उदाहरण है। करोड़ों मध्यमवर्गीय करदाताओं के लिए 12 लाख रुपये तक की आय पर शून्य कर की व्यवस्था महज राहत नहीं, बल्कि आर्थिक भरोसे का संकेत है। सरल कर कानून, तेजी से विवाद निपटान और अनावश्यक मुकदमों से मुक्ति ने करदाताओं के मन में लंबे समय से बनी आशंका को कम किया है। इससे न केवल अनुपालन की संस्कृति मजबूत हुई है, बल्कि सरकार और नागरिकों के बीच विश्वास का सेतु भी बना है।
इसी तरह श्रम कानूनों का सरलीकरण और कुछ नियमों के उल्लंघन को अपराध की श्रेणी से बाहर करना एक साहसिक और व्यावहारिक कदम माना जा सकता है। लंबे समय तक श्रम कानूनों की जटिलता छोटे और मध्यम उद्योगों के लिए विस्तार में बाधा बनी रही। अब आधुनिक श्रम संहिताओं और बढ़ी हुई निवेश व टर्नओवर सीमाओं के कारण एमएसएमई क्षेत्र को नई ऊर्जा मिली है। छोटे व्यवसाय अब बिना भय के विस्तार कर सकते हैं, जिससे रोजगार सृजन और स्थानीय अर्थव्यवस्था को मजबूती मिल रही है।
इन सुधारों की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि इनमें भरोसे और पूर्वानुमेयता को प्राथमिकता दी गई है। व्यवसायों को यह स्पष्ट संकेत मिला है कि नीतियां अचानक नहीं बदलेंगी और सरकार विकास में साझेदार की भूमिका निभाएगी, नियंत्रक की नहीं। यही दृष्टिकोण दीर्घकालिक आर्थिक विकास के लिए अनिवार्य है। जब नियम सरल होते हैं और उद्देश्य स्पष्ट होता है, तब नवाचार और निवेश स्वाभाविक रूप से बढ़ते हैं।
हालांकि, यह भी सच है कि सुधारों की सफलता केवल घोषणाओं से नहीं, बल्कि उनके प्रभावी क्रियान्वयन से तय होती है। केंद्र सरकार द्वारा शुरू की गई कई पहलें राज्यों और जमीनी प्रशासन की सक्रिय भागीदारी पर निर्भर करती हैं। ऐसे में जरूरी है कि जीवन सुगमता का यह अभियान केंद्र से लेकर स्थानीय स्तर तक समान रूप से अपनाया जाए, ताकि इसका लाभ अंतिम व्यक्ति तक पहुंचे।
कुल मिलाकर, प्रधानमंत्री का यह संदेश समय की मांग के अनुरूप है। परिणाम-केंद्रित सुधारों की यह यात्रा अगर इसी दृढ़ता और पारदर्शिता के साथ आगे बढ़ती रही, तो निस्संदेह भारत न केवल आर्थिक रूप से मजबूत होगा, बल्कि शासन के स्तर पर भी आम नागरिक के लिए अधिक सहज और भरोसेमंद बन सकेगा। जीवन सुगमता की यह सोच ही नए भारत के सुशासन की असली पहचान बन सकती है।
