बांग्लादेश में हिंदू अल्पसंख्यकों की सुरक्षा: भारत की चिंता, क्षेत्रीय स्थिरता की कसौटी

बांग्लादेश में हिंदू युवक दीपूचंद्र दास की नृशंस हत्या ने न केवल पड़ोसी देश की आंतरिक स्थिति पर गंभीर प्रश्न खड़े किए हैं, बल्कि भारत-बांग्लादेश संबंधों में भी असहजता बढ़ा दी है। इस एक घटना ने वर्षों से सुलग रही उस पीड़ा को फिर उजागर कर दिया है, जिसमें अल्पसंख्यकों विशेषकर हिंदू समुदाय की सुरक्षा, सम्मान और न्याय की मांग बार-बार अनसुनी होती रही है। भारत के अनेक शहरों में हुए प्रदर्शन इस बात का संकेत हैं कि यह मुद्दा केवल कूटनीतिक नहीं, बल्कि मानवीय और नैतिक भी है। भारत में दिल्ली, कोलकाता, मुंबई, भोपाल, हैदराबाद सहित कई शहरों में सड़कों पर उतरे लोगों का आक्रोश किसी एक संगठन तक सीमित नहीं है। यह व्यापक सामाजिक संवेदना का प्रतिबिंब है। प्रदर्शनकारियों की मांग स्पष्ट हैबांग्लादेश में अल्पसंख्यकों की सुरक्षा सुनिश्चित की जाए और दोषियों को सख्त सजा मिले। हालांकि, प्रदर्शन के दौरान हुई झड़पें चिंता का विषय हैं; लोकतांत्रिक असहमति का स्वर शांति और कानून के दायरे में ही प्रभावी होता है।

राजनयिक स्तर पर भारत द्वारा बांग्लादेशी दूत को तलब किया जाना असामान्य नहीं, पर यह संकेत अवश्य देता है कि स्थिति को हल्के में नहीं लिया जा सकता। एक सप्ताह में दूसरी बार आपत्ति दर्ज कराना यह दर्शाता है कि भारत अल्पसंख्यकों पर हो रहे हमलों को द्विपक्षीय एजेंडे का महत्वपूर्ण विषय मान रहा है। वहीं, बांग्लादेश की अंतरिम सरकार और प्रशासन के सामने यह चुनौती है कि वे कानून-व्यवस्था बनाए रखें, निष्पक्ष जांच कराएं और अल्पसंख्यकों के प्रति भरोसा बहाल करें। यहां संतुलन आवश्यक है। किसी भी देश की संप्रभुता सर्वोपरि होती है, लेकिन मानवाधिकारों का उल्लंघन अंतरराष्ट्रीय चिंता का विषय बनता है। अल्पसंख्यकों की सुरक्षा केवल आंतरिक मामला कहकर टाला नहीं जा सकता। बांग्लादेश का संविधान समानता और धार्मिक स्वतंत्रता की गारंटी देता है; ऐसे में राज्य की जिम्मेदारी और बढ़ जाती है कि वह जमीनी स्तर पर इन मूल्यों को लागू करे। भारत और बांग्लादेश के संबंध ऐतिहासिक, सांस्कृतिक और आर्थिक रूप से गहरे रहे हैं। व्यापार, संपर्क और सुरक्षा सहयोग दोनों देशों के हित में हैं। अल्पसंख्यकों पर हमले और उनके खिलाफ दंडहीनता की धारणा इन संबंधों को कमजोर करती है और क्षेत्रीय स्थिरता को नुकसान पहुंचाती है। इससे कट्टर तत्वों को बढ़ावा मिलता है, जो सीमापार तनाव को हवा दे सकते हैं। समाधान टकराव में नहीं, बल्कि ठोस कदमों में है। बांग्लादेश को चाहिए कि वह: दीपूचंद्र दास की हत्या सहित अल्पसंख्यकों पर हुए सभी हमलों की निष्पक्ष, तेज और पारदर्शी जांच कराए।दोषियों को सख्त सजा देकर ‘शून्य सहनशीलता’ का संदेश दे।संवेदनशील क्षेत्रों में सुरक्षा बढ़ाए और पीड़ित परिवारों को न्याय व संरक्षण दे। नागरिक समाज और धार्मिक नेताओं के साथ संवाद कर सामाजिक सौहार्द बहाल करे।

भारत के लिए भी यह आवश्यक है कि वह कूटनीतिक दबाव के साथ-साथ रचनात्मक सहयोग जैसे मानवाधिकार संवाद, पुलिस-प्रशासनिक सहयोग और सामुदायिक विश्वास-निर्माण को आगे बढ़ाए। साथ ही, देश के भीतर विरोध प्रदर्शन कानून और शांति के दायरे में रहें, ताकि नैतिक बल कमजोर न पड़े।दीपूचंद्र दास की हत्या केवल एक व्यक्ति की त्रासदी नहीं, बल्कि अल्पसंख्यकों की सुरक्षा पर एक गंभीर चेतावनी है। यह समय बयानबाजी से आगे बढ़कर ठोस कार्रवाई का है। न्याय, सुरक्षा और सम्मान यही वे स्तंभ हैं जिन पर पड़ोसी देशों के रिश्ते और क्षेत्रीय शांति टिकी होती है। बांग्लादेश के लिए यह अपने संवैधानिक मूल्यों की कसौटी है, और भारत के लिए मानवीय सरोकारों के साथ संतुलित कूटनीति का अवसर।

- संपादक

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