नाकों की नथुनी

 लेखक : विनोद कुमार झा

गांव चैनपुर की सुबहें हमेशा धीमी और सुकून भरी होती थीं। सूरज जब तालाब के पानी से झांककर निकलता, तो ओस की बूंदों में मानो चांदी घुल जाती। हवा में सरसों के फूलों की खुशबू, मिट्टी का सौंधापन और बांसुरी की धुन मिलकर जीवन को गीत बना देती थी।

इसी गांव की गलियों में एक नाम गूंजता था  गुलनारी। उसकी नाक की नथुनी की चमक से गांव का हर लड़का वाकिफ था। जब वह खेत की मेड़ों पर चलती थी, उसकी नथ हवा में झूलती, सूरज की रोशनी उसमें अटक जाती, और लगता जैसे सुबह का पहला तारा अभी भी धरती पर टंगा है।

गुलनारी की मुस्कान में शरारत थी, पर आंखों में गहराई। गांव की हर औरत कहती,“ई लइकी त बिटिया नाहीं, मौसम के बदली हौ।”और सच में, उसके आने से गलियों में रौनक फैल जाती थी।

गांव के उसी किनारे पर रहता था आरव।शहर से पढ़ाई कर लौटे कुछ ही दिन हुए थे। आरव अब गांव की आंखों में एक उम्मीद था पढ़ा-लिखा, सलीकेदार, और गांव का अपना बेटा।पर गुलनारी के लिए वह कुछ और था। वह वही आरव था जो बचपन में उसके साथ तालाब किनारे मिट्टी के खिलौने बनाता था, और बारिश में भीगते हुए पतंग उड़ाता था।

एक दिन, खेतों में हवा कुछ ज्यादा ही नर्म थी। गुलनारी अपनी सहेलियों के साथ सरसों के फूल तोड़ रही थी। उसी वक्त, आरव वहीं से गुजरा। हवा ने उसके दुपट्टे को उड़ाया, और वो आरव के कंधे पर जा गिरा। एक पल को दोनों की सांसें थम गईं।

आरव ने दुपट्टा संभालकर उसकी ओर बढ़ाया,“तेरा दुपट्टा तो नहीं, जैसे पूरा मौसम उड़कर मेरे पास आ गया।”गुलनारी की हंसी में लाज थी, और लाज में मोहब्बत। वो दिन उनके बीच की दीवारें तोड़ गया।

अब हर सुबह आरव खेत की मेड़ों से गुजरता, उम्मीद में कि गुलनारी दिख जाए। और गुलनारी तालाब किनारे कपड़े धोने का बहाना लेकर वही बैठती, जहां से आरव की राह दिखती।

धीरे-धीरे बातों ने रूप लिया। आरव ने उसे पढ़ना सिखाया  मिट्टी के तख्ते पर उंगलियों से अक्षर लिखकर। और गुलनारी ने उसे सिखाया  “दिल की जुबान किताबों में नहीं होती, नजरों में होती है।”वो दोनों साथ बैठते तो हवा भी रुक जाती।

गुलनारी अक्सर कहती,“आरव, अगर कभी मैं तेरी आंखों से उतर गई, तो क्या होगा?”

आरव मुस्कुराकर कहता,“तू आंखों से उतर भी जाए, तो दिल की नथुनी बनकर झूल जाएगी।” दोनों हंस पड़ते खेतों की लहरों की तरह।

मगर गांव की फिजा में इश्क़ हमेशा आसान नहीं होता। लोगों की नजरें, बातों के तीर और समाज की परतें  सब धीरे-धीरे उनके बीच आने लगीं।

गुलनारी के पिता, किसान सुरेश चौधरी, पुराने खयालों के थे।जब उन्हें पता चला कि गुलनारी आरव से मिलती है, तो उन्होंने कहा,“लइकी के पांव में जंजीर होनी चाहिए, उड़ान नहीं।”

गुलनारी ने बस इतना कहा,“बाबा, अगर उड़ान पाप है, तो ये हवा क्यों है?”उस रात गुलनारी रोई थी। नथुनी की चमक भी फीकी पड़ गई थी।

आरव ने जब उसे देखा, तो कहा,“तेरी मुस्कान बुझ गई तो ये मौसम सूना हो जाएगा।”उसने उसके आंसू पोंछे, और कहा,“मैं लौट आऊंगा, अपने दम पर, तेरे नाम के साथ।”और फिर, आरव शहर चला गया  नौकरी के लिए, पहचान के लिए, वक़्त के खिलाफ लड़ने के लिए।

गांव की गलियों में अब गुलनारी का नाम तानों में लिया जाने लगा। लेकिन वो हर शाम तालाब किनारे बैठती — उसी पत्थर पर, जहां आखिरी बार आरव ने उसका हाथ थामा था।

बरसातें आईं, चली गईं।सरसों फिर खिली, फिर मुरझाई।लेकिन गुलनारी का इंतजार नहीं मुरझाया। उसकी नथुनी अब भी वही थी  झिलमिलाती हुई, जैसे उम्मीद की लौ।

तीन साल बाद, जब गांव में सावन की पहली फुहार गिरी, कोई शहर से लौटा। आरव के चेहरा थका हुआ, पर आंखों में वही चमक। वो सीधा तालाब की ओर गया  जहां गुलनारी बैठी थी।मगर इस बार वो अकेली नहीं थी। उसकी गोद में एक छोटी बच्ची थी  बड़ी-बड़ी आंखों वाली, जिसमें वही शरारत थी जो कभी गुलनारी की थी।

आरव की आंखें भर आईं।“गुलनारी...?” वो मुस्कुराई,“तेरा इंतजार करते-करते ये फिजा मेरी बन गई। तू आया, देर से, पर अब जा मत।”आरव झुककर उस बच्ची को देखा। वो हंस पड़ी, और उसकी नथुनी में छोटी सी चांदी की बाली झूल रही थी।

आरव ने हौले से कहा,“तेरी नथुनी अब तेरे जैसी लगती है — चमकती, हंसती, और ज़िद्दी।”

गांव के लोग कहते हैं,उस दिन के बाद आरव वहीं बस गया। खेत जोते, पेड़ लगाए, और हर शाम गुलनारी के साथ तालाब किनारे बैठा रहा। पर किस्मत के पन्ने हमेशा आसान नहीं होते।

एक दिन जब अचानक तूफान आया, बस्ती का पेड़ गिरा, और हवा ने गांव की छतें उड़ा दीं  गुलनारी उस बच्ची को बचाने में खुद चली गई। आरव ने बस उसकी नथुनी को अपनी हथेली में पाया  वही नथुनी, जो कभी सूरज से ज्यादा चमकती थी।

उसने उसे अपने सीने से लगाया, और आसमान की ओर देखा।बारिश गिरती रही। तालाब भरता रहा। और हवाओं में किसी की हंसी गूंजती रही “आरव, अलवेला मौसम ठहर नहीं सकता... पर प्यार, वो अमर हो जाता है।”

अब भी जब गांव में सावन आता है, लोग कहते हैं ,तालाब किनारे किसी शाम, हवा में नथुनी की झिलमिल दिखाई देती है।शायद गुलनारी की आत्मा मुस्कुरा रही होती है, और आरव उस ओर देख रहा होता है, जहां जवानी का उमंग अब भी अलवेला बना हुआ है।

समाप्त 

Post a Comment

Previous Post Next Post