जयद्रथ के सिर का रहस्य: वरदान, श्राप और श्रीकृष्ण की अद्भुत योजना

 विनोद कुमार झा

जयद्रथ के सिर का रहस्य महाभारत की सबसे रोचक घटनाओं में से एक है। यह घटना केवल युद्धकौशल का नहीं, बल्कि नीति, वरदान, श्राप और श्रीकृष्ण की अद्भुत योजना का अद्वितीय संगम है। आइए इस रहस्य को तीन पहलुओं से समझते हैं श्राप, वरदान और कृष्ण की योजना।

कुरुक्षेत्र की रणभूमि पर जब अर्जुन के रथ से प्रतिज्ञा की गूंज उठी, “कल सूर्यास्त से पहले यदि मैं जयद्रथ का वध न कर पाया, तो अग्नि में प्रवेश कर प्राण त्याग दूंगा!”तब सम्पूर्ण कौरव पक्ष में सन्नाटा छा गया। जयद्रथ के चेहरे पर भय और गर्व का अद्भुत मिश्रण दिखा। यह वही जयद्रथ था, जिसने महादेव की तपस्या कर ऐसा वरदान पाया था, जो उसे एक दिन के लिए पांडवों को रोकने का सामर्थ्य देता था।

महादेव का वरदान और अभिमन्यु की मृत्यु : सिंधु देश का राजा जयद्रथ, धृतराष्ट्र की पुत्री दुश्शला का पति था। द्रौपदी हरण के प्रयास में अपमानित होने के बाद, उसने शिव की घोर आराधना की। प्रसन्न होकर महादेव ने उसे वरदान दिया, “तुम युद्ध में एक दिन पांडवों को रोक सकोगे, परंतु अर्जुन को नहीं।”

यही वरदान युद्ध के तेरहवें दिन अभिमन्यु की मृत्यु का कारण बना। जयद्रथ ने चक्रव्यूह के द्वार पर पहरा देकर अभिमन्यु को भीतर जाने दिया, पर बाहर निकलने नहीं दिया। पांडवों की सहायता पहुँचने से पहले अभिमन्यु वीरगति को प्राप्त हुआ। उस दिन से अर्जुन के हृदय में प्रतिशोध की ज्वाला भड़क उठी।

श्राप का रहस्य, जयद्रथ का सिर क्यों खास था?

जयद्रथ का मस्तक मात्र एक सिर नहीं था, बल्कि उसमें एक श्राप का भय छिपा था। उसके पिता, वृध्यक्षत्र, तपस्वी और तेजस्वी राजा थे। एक बार बालक जयद्रथ उनकी साधना में बाधा डाल बैठा। क्रोधित होकर उन्होंने श्राप दिया, “तुम्हारा सिर किसी महान धनुर्धर के हाथ से कटेगा। यदि यह सिर भूमि पर गिरा या जिसने इसे गिरते देखा, वह तुरंत भस्म हो जाएगा।” इस श्राप ने जयद्रथ के जीवन को और भी विचित्र बना दिया। यह रहस्य केवल जयद्रथ और उसके पिता को ज्ञात था।

सूर्यास्त की अंतिम घड़ी और श्रीकृष्ण की लीला : 14वें दिन का युद्ध इतिहास का सबसे रोमांचक प्रसंग बन गया। अर्जुन ने अपनी प्रतिज्ञा पूरी करने के लिए आंधी-तूफान की तरह कौरव सेना को चीर डाला, परंतु जयद्रथ तक पहुँचना असंभव लग रहा था। दुर्योधन, कर्ण और गुरुओं ने उसकी सुरक्षा के लिए अभेद्य दीवार बना दी थी।

जैसे-जैसे समय बीतता गया, पांडव शिविर में चिंता बढ़ती गई। सूर्य पश्चिम में ढलने को था। तभी श्रीकृष्ण ने अपनी योगमाया से क्षणभर के लिए सूर्य को बादलों में छिपा दिया। कौरव दल ने इसे सूर्यास्त समझकर शंख बजाए और जयद्रथ निश्चिंत होकर अपने रथ से बाहर आया।

उसी क्षण श्रीकृष्ण ने अर्जुन को संकेत दिया। अर्जुन का घातक बाण वज्र के समान वेग से चला और जयद्रथ का सिर धड़ से अलग हो गया।

सिर का गंतव्य, हिमालय की गोद में श्राप की पूर्ति : श्रीकृष्ण केवल अर्जुन की प्रतिज्ञा निभाने वाले सारथी नहीं थे, वे लीला पुरुषोत्तम थे। उन्होंने बाणों की ऐसी रचना करवाई कि जयद्रथ का सिर भूमि पर नहीं गिरा। वह उड़ता हुआ दूर, हिमालय में तपस्या कर रहे वृध्यक्षत्र की गोद में जा गिरा।

उन्होंने जैसे ही अपने पुत्र का सिर देखा, स्वाभाविक रूप से आश्चर्य में उसे छोड़ दिया और श्राप के अनुसार तत्काल भस्म हो गए। इस प्रकार वरदान, श्राप और प्रतिज्ञा—तीनों की पूर्ति एक ही दिव्य योजना से हो गई।

जयद्रथ का अहंकार और धर्म की विजय : जयद्रथ ने शिव के वरदान को अपनी शक्ति मान लिया और अहंकार से भर गया। उसने सोचा कि वह पांडवों को हमेशा पराजित कर सकेगा। किंतु धर्मयुद्ध में विजय केवल बल या वरदान से नहीं, बल्कि धर्म और नीति से होती है। श्रीकृष्ण ने दिखाया कि किसी भी प्रकार का अहंकार, चाहे वह शक्ति का हो या वरदान का, अंततः नाश को प्राप्त होता है।

जयद्रथ की कथा हमें यह भी सिखाती है कि धर्म के मार्ग पर चलने वाले के साथ सदैव दिव्य शक्ति खड़ी रहती है। श्रीकृष्ण की योजना ने न केवल अर्जुन की प्रतिज्ञा की रक्षा की, बल्कि श्राप और वरदान के बीच संतुलन भी स्थापित किया।

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