मिथिलांचल में चौठी चंद्र पूजा (चौरचन): संस्कृति की चाँदनी में नहाया एक पर्व

 लेखक: विनोद कुमार झा

मिथिलांचल जनक की नगरी, सीता की धरती, विद्या और संस्कृति का अनमोल खजाना। यहाँ की परंपराएँ केवल धार्मिक कर्मकांड नहीं हैं, बल्कि वे जीवन दर्शन, प्रकृति प्रेम और पारिवारिक रिश्तों की मधुरता का प्रतीक हैं। इन्हीं अनुपम परंपराओं में से एक है ‘चौठी चंद्र पूजा’, जिसे स्थानीय बोली में ‘चौरचन’ कहा जाता है। यह पर्व भाद्रपद मास के शुक्ल पक्ष की चतुर्थी को मनाया जाता है, जब आकाश में चंद्रमा की रजत आभा बिखरी रहती है और धरती पर श्रद्धा, प्रेम और संस्कृति का उत्सव सजता है।

मिथिलांचल में यह पर्व केवल पूजा-अर्चना तक सीमित नहीं, बल्कि खान-पान, गीत-संगीत, परिवार और सामाजिक रिश्तों का उत्सव है। यह चंद्रमा की उपासना के साथ-साथ कृषि और ऋतुचक्र से जुड़ा हुआ भी है। भाद्रपद का महीना बरसात के अंतिम दिनों का संकेत देता है। खेतों में धान की हरियाली लहलहाती है, प्रकृति नए सौंदर्य से भर जाती है। ऐसे समय में चंद्रमा का पूजन, उसकी शीतलता का स्वागत और प्रकृति के इस सुंदर रूप का सम्मान इसी भावना के साथ चौरचन का पर्व मनाया जाता है।

चौरचन का इतिहास और उत्पत्ति: पौराणिक मान्यता और लोककथा : चौरचन का इतिहास हजारों वर्षों पुरानी पौराणिक मान्यताओं से जुड़ा हुआ है। चतुर्थी तिथि पर चंद्रमा का पूजन करने का उल्लेख स्कंद पुराण, वराह पुराण और विष्णु धर्मसूत्र में मिलता है। माना जाता है कि गणेश जी के पूजन के साथ चंद्रमा का पूजन करने से समस्त दोष समाप्त होते हैं और समृद्धि, स्वास्थ्य एवं शांति प्राप्त होती है।

लोककथाओं में कहा जाता है कि चंद्रमा को ‘औषधियों का राजा’ माना गया है। चंद्रमा की किरणों में शीतलता और अमृत तत्व होने का विश्वास है। यह स्वास्थ्य के लिए लाभकारी माना जाता है। यही कारण है कि इस दिन लोग चंद्रमा के दर्शन कर ‘अर्घ्य’ अर्पित करते हैं और चंद्रमा की शीतलता को जीवन में अपनाने का संकल्प लेते हैं।

मिथिला की लोककथा में यह पर्व खास महत्व रखता है। जनश्रुति है कि माता सीता ने भी चंद्रमा को प्रणाम कर व्रत का पालन किया था। इसलिए मिथिलांचल की महिलाएँ इसे विशेष श्रद्धा से निभाती हैं।

चंद्रमा का धार्मिक और ज्योतिषीय महत्व : वेदों और पुराणों में चंद्रमा को मन का स्वामी माना गया है। ऋग्वेद में चंद्रमा को देवता के रूप में स्तुति करते हुए कहा गया है कि वह मन, भावनाओं और शीतलता का प्रतीक है। ज्योतिष शास्त्र में चंद्रमा को मस्तिष्क, भावनाओं और मातृत्व का कारक माना गया है। यही कारण है कि चौरचन में माता-पिता, भाई-बहन, पति-पत्नी और बच्चों के प्रति प्रेम और कर्तव्य भावना को भी बल मिलता है।

पूजा विधि और तैयारी : भाद्रपद शुक्ल चतुर्थी के दिन दोपहर बाद से ही तैयारियाँ शुरू हो जाती हैं। आँगन को गोबर और मिट्टी से लीपा जाता है। अरिपन (मिथिला की पारंपरिक रंगोली) बनाई जाती है। पूजा स्थल पर मिट्टी के बर्तन में दही, चिउरा, मालपुआ, पूड़ी, खीर, फल, पान-सुपारी, नारियल आदि रखा जाता है।

संध्या समय जब चंद्रमा का उदय होता है, तब स्त्रियाँ और पुरुष घर की छत या आँगन में बैठकर चंद्रमा को अर्घ्य देते हैं। चाँदी या स्टील के लोटे में जल, दूध और फूल डालकर अर्घ्य अर्पित किया जाता है।

पूजा के बाद सभी लोग दही, मालपुआ और खीर का प्रसाद ग्रहण करते हैं। चौरचन का असली आनंद उसके पकवानों में है। इस दिन विशेष रूप से बनते हैं: दही-चिउरा  मिथिला का प्रसिद्ध व्यंजन, जो ठंडक और ताजगी का प्रतीक है। आटे, दूध और चीनी से बना मीठा पकवान। खीर : चावल और दूध में इलायची और मेवा डालकर पकाया जाता है। पूड़ी और तरकारी पूड़ी के साथ आलू-टमाटर की सब्जी का संगम।  नारियल, केला, सेव  फलों का उपयोग पूजा और प्रसाद दोनों में। इन व्यंजनों का महत्व केवल स्वाद तक सीमित नहीं, बल्कि ऋतु परिवर्तन के समय शरीर को संतुलित करने के लिए भी है।

लोकगीत और लोकसंस्कृति : इस दिन मिथिला के लोकगीतों की गूँज सुनाई देती है। महिलाएँ छत पर बैठकर चंद्रमा के स्वागत में गीत गाती हैं:

“चंदा मामा आयलौं, थारी में रस-भरी दही, दूध के धार बहायब, अपन अंजोर देहिया मही…”

गाँवों में झूले पड़ते हैं, बच्चे कागज के चाँद बनाते हैं। यह दिन खेल, गीत और उल्लास का दिन होता है।

पारिवारिक और सामाजिक महत्व : चौरचन का सबसे बड़ा आकर्षण है संपूर्ण परिवार का एक साथ पूजा करना और भोजन करना। इसमें बड़ों का आशीर्वाद, बच्चों की हँसी और महिलाओं की सजधज सब एक साथ दिखाई देते हैं। यह पर्व संस्कारों और रिश्तों की डोर को मजबूत करता है।

आधुनिक युग में चौरचन : आज जब लोग शहरों और विदेशों में रहते हैं, तब भी यह पर्व अपनी लोकप्रियता नहीं खो पाया। ऑनलाइन पूजा सामग्री, वर्चुअल पूजा ग्रुप, और मिथिला संगठन के प्रयासों से यह परंपरा डिजिटल युग में भी जीवित है।

चौरचन केवल एक पर्व नहीं, बल्कि एक संस्कृति है जिसमें प्रकृति, परिवार, प्रेम, आस्था और स्वाद सबका सुंदर समन्वय है। यह पर्व हमें सिखाता है कि चंद्रमा की तरह जीवन में शीतलता और सौम्यता बनाए रखें।

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