# बारिश में भींगते बदन...

(एक प्रेम कहानी, बादलों की तरह उमड़ती-घुमड़ती, जहाँ बूंदें केवल पानी नहीं होतीं, वो स्पर्श, स्मृति और सांसों की भाषा बन जाती हैं।)

विनोद कुमार झा

 किसी पहाड़ी के नीचे बसा एक गांव था #बरगदवा जहां न रेल पहुंचती थी, न सड़क ढंग की थी। वहां की मिट्टी हर साल सूख जाती थी… और हर बरस, लोग बादलों की तरफ़ ताकते थे  उम्मीद की नमी लिए। वहीं रहती थी गुड़िया – दस साल की छोटी-सी लड़की, जिसे बादलों से दोस्ती थी। वह हर दिन शाम को घर के पीछे उस पुराने आम के पेड़ के नीचे बैठती और आसमान से बतियाती “अरे बदरा भैया, अब तो आ जाओ न... माँ कहती है खेत सूख रहे हैं, बाबा का चेहरा उदास रहता है।” #बदरा नहीं आते। हर दिन वही धूल, वही गर्म हवा, वही सूखी धरती। एक दिन गुड़िया ने आसमान को चिठ्ठी लिखी। पुराने कॉपी के पन्ने पर बड़ी मेहनत से लिखा:

"बदरा भैया,
मैं गुड़िया बोल रही हूं। आप हर साल शहर वालों के पास चले जाते हो। वहाँ की छतों पर नाचते हो, बिजली चमकाते हो, बच्चों को भीगने देते हो।
लेकिन हमारे गांव में नहीं आते। यहाँ के खेत रोते हैं, माँ की आँखें सूख जाती हैं, और बाबा चुप हो जाते हैं।
प्लीज़ एक बार आ जाओ। मैं आपकी सबसे प्यारी बहन बन जाऊंगी।"

गुड़िया ने वो चिठ्ठी आम के पेड़ की सबसे ऊँची डाल पर बाँध दी, और बोली , “अब देखो, बदरा ज़रूर आएँगे।”रात हुई। आसमान शांत था। मगर आधी रात के बाद कुछ गड़गड़ाहट हुई... फिर एक बिजली चमकी... और फिर ##झर्र-झर्र... झर्र-झर्र...बादल उमड़ आए! जैसे किसी कोने में छिपे बैठे भावुक देवता अचानक फूट पड़े हों।# पूरा गांव उठ गया  बच्चे नाचे, बूढ़े छत पर गए, और माँ ने गुड़िया को गले से लगा लिया और बोली, “तेरी चिठ्ठी काम कर गई बेटा!”

खेतों ने राहत की सांस ली, तालाब फिर से भरने लगे। गांव के लोग कहते हैं , “इस बार की बारिश कोई आम बरसात नहीं थी... ये तो गुड़िया की दुआ थी...”और गुड़िया? अब भी हर शाम आम के पेड़ के नीचे बैठती है, और मुस्कुरा कर कहती है #“बदरा भैया, फिर आना... मेरी कहानी अधूरी मत छोड़ना।”

अब गुड़िया बड़ी हो गई और प्रेम की भावना को समझने लगी। एक दिन गांव के बाहर बांस की झाड़ियों से सटी एक कच्ची पगडंडी थी, जहां हर शाम #गुड़िया चुपचाप बैठती थी। वो वहीं मिलती थी नितिन से – छुपकर, धीरे-धीरे, मुस्कराहटों में। सावन शुरू हो गया था, लेकिन बादल अब तक नहीं बरसे थे। गुड़िया का मन भी वैसा ही था # भारी, रुका हुआ, इंतज़ार में।"पता है, जब पहली बारिश होगी, मैं तुम्हारा नाम भीगते हुए पुकारूँगी..."

#गुड़िया ने कहा, नितिन हँसा और कहा " मैं बदरा बनकर बरस जाऊँगा।"अगले दिन नितिन नहीं आया।

गुड़िया रोज़ वही इंतज़ार करती रही  आंखें पगडंडी पर, मन आकाश की ओर। बादल हर दिन आते, मगर बरसते नहीं। जैसे नितिन हर रोज़ दिल में आता, पर सामने नहीं आता।

"क्यों नहीं बरसते ये बदरा?" गुड़िया बुदबुदाई।
"जैसे नितिन का प्यार – ठहरा हुआ, अनकहा, अधूरा।"

परेशान होकर गुड़िया ने एक कागज़ लिया और लिखा,"नितिन,अगर तू आ नहीं सकता, तो बदरा बनकर एक दिन तो बरस जाओ। मेरा मन मिट्टी की तरह सूख गया है। एक फुहार भेज दो, ताकि मैं यकीन कर सकूँ कि तुम अब भी हो, कहीं तो हो।" उसने वो चिठ्ठी नीम के पेड़ की डाल पर बाँध दी। और उस रात, उसने पहली बार रोते हुए सोने की कोशिश की।

सुबह आसमान का रंग बदला हुआ था। बादल झुंड में आए थे – काले, भारी, जैसे कोई रूठा प्रेमी अपनी बात कहने को बेताब हो। और फिर... जमकर बरसीं बदरा

हर कोना भीग गया। गुड़िया छत पर दौड़ी।
उसने बाहें फैलाईं, और आँसू की तरह भीगती हुई चिल्लाई,
"नितिन!" उसी भींगते आकाश के नीचे, नितिन खड़ा था – उसी पगडंडी पर। आँखें उसकी भीगी थीं, पर चेहरा मुस्कराता था।

मैं आ गया,” उसने कहा। “तुम्हारे प्यार की बारिश बनकर।” उस दिन के बाद गांव में हरीतिमा लौट आई, और गुड़िया के जीवन में भी।अब हर सावन के पहले दिन, नितिन और गुड़िया पुराने नीम के पेड़ के नीचे बैठते हैं वहीं, जहां चिठ्ठी उड़ती थी, बादल बरसते थे, और प्रेम भीगता था। अब भी जब सावन आता है, गांव वाले कहते हैं ,"जमकर बरसीं बदरा... जैसे गुड़िया के मन का प्यार खुद आकाश से गिरा हो..."

एक दिन बरसात की वो दोपहर बाकी हर दोपहर से अलग थी। बादल एकटक गुड़िया को देख रहे थे, जैसे जान गए हों कि आज उसे खुद से भीगने की इजाज़त है। वो अकेली नहीं थी। नितिन सामने खड़ा था  हाथ फैले हुए, और मुस्कुराहट वैसी… जैसे सावन खुद उसकी पलकों से टपक रहा हो। बूंदें गिरने लगीं… धीरे-धीरे… फिर तेज़… फिर झूमकर। गुड़िया ने चुपचाप आंखें मूंद लीं। बारिश की पहली बूंद उसके माथे से होते हुए गाल पर फिसली…फिर गर्दन पर... और फिर बदन पर  जैसे हर बूंद में नितिन का नाम घुला हो।

नितिन पास आया। भीगते हुए… बिना छुए, उसे छू लिया।नीलम कांप उठी  न सर्दी से, न डर से बल्कि उस अहसास से,जिसमें बूंद-बूंद में एक प्रेमी की हथेलियाँ थीं…एक धड़कता हुआ स्पर्श था। उस दिन, न कोई वादा हुआ, न कोई कसम। बस दो जिस्मों ने एक साथ भीगते हुए, एक ही बारिश में अपने प्यार को महसूस किया।

गुड़िया ने धीरे से कहा, "आज की बारिश सिर्फ़ पानी नहीं है, नितिन… ये तुम्हारे होने का सबूत है। "और नितिन मुस्कुराया "और तुम्हारा भींगना... मेरा जवाब है।" जब-जब बारिश होती है, कोई प्रेमी किसी पेड़ के नीचे खड़ा अपनी गुड़िया की याद में भीगता है…और कहता है –"हर बूंद तुम्हारी बात करती है।"

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