#प्रेम कहानी: मन की द्वार

(एक आत्मिक मिलन की रहस्यमयी गाथा)

विनोद कुमार झा

प्रेम  एक शब्द नहीं, एक ब्रह्म है। देह की सीमाओं से परे, चेतना की लहरों पर बहता हुआ, वह भाव जो न जन्म से बँधता है, न मृत्यु से। यह कहानी किसी साधारण प्रेम की नहीं, एक ऐसी आत्मिक यात्रा की है जहाँ #मन के द्वार पर दस्तक देती है वह आत्मा जो शायद किसी और जन्म में भी वहीं खड़ी थी।

यह कहानी है अद्वित और अंशिका की। अद्वित हिमालय के सन्नाटों में रहने वाला एक अकेला लेखक, जिसने जीवन को शब्दों की गहराइयों में जीना सीखा है। #अंशिका  बनारस की रंग-बिरंगी गलियों में पली एक चित्रकारा, जो रंगों से जीवन रचती है, लेकिन जिसकी आत्मा किसी ऐसे रंग की खोज में है जिसे उसने कभी देखा नहीं।

दोनों के बीच की दूरी  शहरों, सोचों और समयों की। फिर भी कुछ था, जो इन दोनों को एक दूसरे की ओर खींच रहा था। क्या वह पूर्व जन्म का कोई अधूरा वचन था? या #कोई ऐसा प्रेम, जो पुनर्जन्मों की डोर से बँधा था? आइए, इस आत्मिक प्रेमगाथा की यात्रा पर निकलते हैं।

हिमालय की तलहटी में बसे छोटे से गाँव "ऋत्विकपुर" में अद्वित पिछले चार वर्षों से रह रहा था। उसके शब्दों में एक बेचैनी थी  जैसे कोई बीते समय से पीछा नहीं छुड़ा पा रहा हो। वह जीवन से भागकर आया था, लेकिन यादों से नहीं।
रोज़ सुबह पांच बजे उठकर वह धूप से बात करता, जंगल से संवाद करता, और फिर अपने कमरे में बंद होकर लिखता रहता  #कहानियाँ, उपन्यास, लेकिन कभी-कभी केवल एक पंक्ति: “उसकी आँखों में कोई पहचानी सी पुकार थी  जैसे मेरे ही भीतर से उठी हो।” उसे नहीं पता था कि यह #पंक्ति किसके लिए थी। शायद किसी कल्पना के लिए। लेकिन कहीं उसके भीतर यह भाव था कि वह कल्पना एक दिन सामने खड़ी होगी।

बनारस की संकरी गलियों में अंशिका अपनी कला की दुनिया में मस्त थी। वह मंदिरों के रंग, घाट की भीड़, #बूढ़ी दीवारों की दरारों तक को कैनवास पर उतार देती थी। पर एक आकृति थी जो वह हर बार अधूरी छोड़ देती  एक पुरुष की आकृति, जो हमेशा धुंधला ही रहता। हर चित्र में वह एक ही चेहरा बनाती, लेकिन हर बार कुछ बदल जाता। उसकी आँखों में अनजानी व्याकुलता होती, #होठों पर अधूरी सी मुस्कान, जैसे कुछ कहना चाह रहा हो लेकिन शब्दों से डरता हो।

एक दिन वह घाट पर बैठी थी, जब उसके हाथ से ब्रश छूटा और गंगा में बह गया। उसे रोकने की कोशिश में वह पानी में पैर डुबो चुकी थी। उसी वक्त एक अजनबी स्वर ने पुकारा,“वो ब्रश तो गया, पर कुछ रंग अब आपके चेहरे पर भी हैं।” वह पल भर को रुकी। पलटी, लेकिन वहाँ कोई नहीं था। कुछ क्षणों बाद एक वृद्ध पुजारी ने कहा ,“मन की चित्रकारी ब्रश से नहीं होती बिटिया, भाग्य के रंगों से होती है।”वह उस दिन से बेचैन हो उठी। कौन था वह?

अंशिका को एक आमंत्रण मिला  “हिमालय साहित्य संगम” के लिए। आयोजकों ने कहा कि उनके चित्रों में एक “मन से संवाद” जैसी शक्ति है। संगम में भाग लेने के लिए उसे ऋत्विकपुर जाना था। उधर अद्वित को भी संगम के लिए आमंत्रित किया गया। उसे इस आयोजन से कोई लगाव नहीं था, लेकिन आयोजक ने कहा ,“आपके शब्दों को जिन चित्रों की तलाश है, वे इस बार की प्रदर्शनी में हैं।” दोनों पहुँचे  अलग-अलग दिन, अलग-अलग रास्तों से, लेकिन एक ही उद्देश्य के अधीन: अपनी अधूरी खोज को पूरा करने।

संगम के पहले दिन अद्वित चित्र दीर्घा में गया। उसकी आँखें एक चित्र पर ठहर गईं “वो चित्र... वही आँखें... वही चेहरा... वही धुंध।”उसने नीचे लिखा नाम पढ़ा: अंशिका कश्यप

संगम के तीसरे दिन दोनों आमने-सामने आए। कोई परिचय नहीं हुआ, कोई शब्द नहीं बोले गए। बस नज़रों ने एक-दूसरे को टटोला। अंशिका की आँखों में वह हल्की सी झिझक थी, जैसे वह पहले से जानती हो कि यह वही व्यक्ति है जिसकी छाया उसके चित्रों में बसती थी। अद्वित ने कहा,“आपके चित्र बोलते हैं… शायद मेरे मन की भाषा में।”

अंशिका ने मुस्कुरा कर पूछा,“आपके शब्द… क्या किसी चित्र से प्रेम कर सकते हैं?”दोनों की चुप्पी लंबी हो गई। और उस चुप्पी में एक पुल बन चुका था हृदय से हृदय तक।

संगम के बाद अद्वित ने कुछ दिनों तक अंशिका को ऋत्विकपुर में रुकने का अनुरोध किया। वहाँ पहाड़ों के बीच, मंदिरों की घंटियों की ध्वनि में, दोनों एक-दूसरे के पास आने लगे। एक दिन अद्वित ने उससे पूछा,“तुम्हारे हर चित्र में वही चेहरा क्यों होता है?”

अंशिका ने कहा ,“क्योंकि मुझे यकीन था कि वो कोई कल्पना नहीं है। वो कहीं है  किसी जन्म का कोई अधूरा प्रेम।”अद्वित के हाथ से उसकी डायरी गिर पड़ी, और उसमें वही पंक्ति लिखी थी ।“उसकी आँखों में कोई पहचानी सी पुकार थी  जैसे मेरे ही भीतर से उठी हो।”दोनों चुप थे। केवल हवा चल रही थी  धीरे से, जैसे कोई द्वार खुल रहा हो।

ऋत्विकपुर के पास एक पुराना आश्रम था। वहाँ के स्वामीजी ने अंशिका को देखा और कहा:“तुम फिर आई हो बेटी। इस बार वह भी तुम्हारे साथ है।” अंशिका चौंकी। स्वामीजी ने बताया कि पिछले जन्म में वह एक मूर्तिकार थी और अद्वित एक तपस्वी लेखक। दोनों ने एक-दूसरे से प्रेम किया था, लेकिन समाज और परिस्थितियों ने उन्हें अलग कर दिया।

उन्होंने वादा किया था कि अगले जन्म में वह "मन की द्वार" पर फिर मिलेंगे। अंशिका की आँखों में आँसू थे। अद्वित चुप खड़ा था  भीतर से काँपता हुआ। लेकिन उसके होंठों पर एक ही शब्द था “मैंने तुम्हें खोज लिया…”उनका मिलन आसान नहीं था। अद्वित की पुरानी सगाई, अंशिका के परिवार की असहमति, और समाज के सवाल  सब बाधा बने। लेकिन अब वे दोनों समझ चुके थे कि यह प्रेम केवल इस जन्म का नहीं था।

अंशिका ने कहा,“हम लड़ेंगे  इस जीवन में भी, और हर जीवन में  जब तक प्रेम को पूर्णता न मिले।” दोनों ने मिलकर अपने जीवन को एक साथ जीने का निर्णय लिया। उन्होंने पहाड़ की तलहटी में एक "मनमंदिर" बनाया  जहाँ अद्वित लिखता और अंशिका चित्र बनाती। उनकी कहानी अब औरों के लिए प्रेरणा बनी  एक कथा, जो साबित करती है कि सच्चा प्रेम देह की सीमा से परे आत्मा की यात्रा है।

"प्रेम कहानी: मन की द्वार" केवल एक कथा नहीं है  यह एक अनुभूति है। यह उन सभी के लिए है, जिन्होंने कभी किसी को बिना वजह चाहा हो। यह उनके लिए है, जो प्रतीक्षा करते हैं  और उन्हें नहीं पता कि वे किसकी प्रतीक्षा कर रहे हैं। क्योंकि जब मन का द्वार खुलता है  तो सामने वही खड़ा होता है, जिसके लिए वह बंद था।

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