दुर्गा माता मंदिर, जड़ेलकुड़ी नारी शक्ति और सांस्कृतिक एकता की पौराणिक कथा

विनोद कुमार झा

जड़ेलकुड़ी (Jowai), जयंतिया हिल्स जिला, मेघालय  एक स्थान जो इतिहास में बंगालियों और जयंतिया आदिवासियों के सांस्कृतिक समागम के लिए प्रसिद्ध है। यहीं स्थित है दुर्गा माता का मंदिर, जो स्थानीय जनजातीय देवियों और बंगाली देवी दुर्गा के एकात्म भाव को दर्शाता है।

यह मंदिर एक बंगाली ब्राह्मण द्वारा स्थापित किया गया था जो व्यापार हेतु मेघालय आए थे। उन्होंने माता दुर्गा को इस क्षेत्र की रक्षा का दायित्व सौंपा। किंवदंती के अनुसार, एक बार दुश्मनों ने गांव पर हमला किया, परंतु माता की मूर्ति से अग्नि प्रकट हुई और शत्रुओं को भस्म कर दिया। तब से यह मंदिर स्थानीय जनजातियों और अन्य समुदायों में एकता और शक्ति का केंद्र बना।

कथा:  18वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में एक बंगाली वैद्य परिवार व्यापार एवं चिकित्सा सेवा के लिए सिलचर से होते हुए जयंतिया पहाड़ियों की ओर आए। उस परिवार की कुल देवी थी माता दुर्गा, जिनकी एक लकड़ी की मूर्ति वे हमेशा अपने साथ रखते थे। स्थानीय जयंतिया राजा, सैयेम दारंग, जब बीमार पड़ा तो उस वैद्य ने अपनी औषधियों से उसे स्वस्थ कर दिया। राजा प्रसन्न हुआ और उन्हें जड़ेलकुड़ी में बसने की अनुमति दी।

कहा जाता है कि वैद्य के परिवार ने एक दिन माता दुर्गा की पूजा एक झरने के पास की। पूजा के बाद मूर्ति उठाई गई  लेकिन वह अचानक भारी हो गई और हिलना बंद हो गई।

एक वृद्धा ने स्वप्न में देवी को देखा, जिन्होंने कहा ,“मैं यहाँ रुकना चाहती हूँ। यह भूमि अब मेरी भी है। जनजातियों की धरती, अब मुझमें समाहित होगी।” तब राजा ने उस स्थान पर एक स्थायी दुर्गा मंदिर बना दिया गया।

यहाँ की अद्भुत बात है कि  माता दुर्गा की पूजा बंगाली पद्धति और आदिवासी परंपरा दोनों से होती है। जहाँ एक ओर मूर्ति को सिंदूर, धूप और मंत्रों से पूजते हैं, वहीं दूसरी ओर खासी महिलाएं देवी को पत्तों, कच्चे चावल और जल से अर्घ्य देती हैं।यह देवी दोनों परंपराओं में 'शक्ति की प्रतीक' है ।

बंगालियों के लिए  महिषासुरमर्दिनी, आदिवासियों के लिए – ‘Ka Tyngkei Shakti’ (अर्थ: गर्जन करती स्त्री शक्ति)।

एक बार मंदिर पर अंधड़ आया, और पूरा गाँव उजड़ गया  लेकिन माता की मूर्ति और दीया जलता ही रहा। कहा जाता है कि जो महिला शक्ति की कमी, आत्मविश्वास की हानि से ग्रस्त हो, यदि यहाँ 9 शुक्रवार तक मौन प्रार्थना करे, तो देवी उसमें ‘Tyngkei’ शक्ति भर देती हैं।

यहाँ शारदीय नवरात्रि और बसंती दुर्गा पूजा दोनों मनाई जाती हैं। जयंतिया समुदाय की महिलाएँ देवी के सामने पारंपरिक वाद्ययंत्र बजाकर नृत्य करती हैं  जिसे ‘Niam Tyngkei’ कहा जाता है। अंतिम दिन किसी मूर्ति का विसर्जन नहीं होता, क्योंकि देवी इसी भूमि की स्वामिनी हैं।

यह मंदिर धर्मों के बीच समरसता का प्रतीक है। हिंदू और आदिवासी, वैदिक और प्रकृति-पूजक,स्त्री और देवता  सब एक सूत्र में। यह मंदिर बताता है कि नारी शक्ति किसी जाति, भाषा या परंपरा की बंधक नहीं वह समस्त मानवता की आत्मा है।

"जहाँ प्रेम और शक्ति का संगम होता है, वहाँ धर्म सीमाएँ तोड़ देता है।"यह मंदिर केवल पूजा का स्थान नहीं, बल्कि एक जीवंत संदेश है ।“देवी वहाँ नहीं रहती जहाँ उसे पूजते हैं, बल्कि वहाँ रहती हैं जहाँ उसे समझते हैं।”

Post a Comment

Previous Post Next Post