# कर्म की विजय

(एक प्रेरणादायक सामाजिक-आध्यात्मिक कथा)

विनोद कुमार झा

जब जीवन निराशा से घिर जाता है और भाग्य का अंधकार हर दिशा में फैलने लगता है, तब कुछ लोग टूट जाते हैं, कुछ लोग ठहर जाते हैं और कुछ लोग कर्म की लौ जलाकर आगे बढ़ जाते हैं। “कर्म की विजय” की यह कथा ऐसे ही एक युवक की है, जिसने समाज, गरीबी, विषमताओं और अपने ही भाग्य के सामने सिर नहीं झुकाया बल्कि अपने सतत प्रयासों, निःस्वार्थ सेवा और आत्मबल से एक नई रोशनी की शुरुआत की।

भारतीय दर्शन सदैव कर्म को प्रधान मानता रहा है  गीता में श्रीकृष्ण ने कहा, “कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन”* अर्थात् तेरा अधिकार केवल कर्म पर है, फल पर नहीं। इस सिद्धांत को जीवन में उतारकर, जब कोई व्यक्ति बिना फल की चिंता किए, निष्ठा और श्रम से कर्म करता है, तो प्रकृति स्वयं उसके मार्ग की बाधाओं को हटाने लगती है।

हमारे समाज में अभी भी ऐसे कई उदाहरण मिलते हैं जहाँ जाति, गरीबी, शिक्षा या परिवार की सीमाएं किसी व्यक्ति को रोकने का प्रयास करती हैं। लेकिन कर्म की शक्ति इन सीमाओं को तोड़ने में समर्थ होती है। यह कथा एक ऐसे ही गांव के साधारण युवक "नील" की है, जिसने अपने कर्म के माध्यम से अपने जीवन की दशा ही नहीं, दिशा भी बदल दी।

यह केवल एक व्यक्ति की नहीं, बल्कि उस विचारधारा की कथा है जो यह कहती है “भाग्य यदि हाथ की लकीरों में लिखा है, तो कर्म से उन्हें बदला भी जा सकता है।” यही है  कर्म की विजय।

सुदूर बिहार के सीमांचल क्षेत्र में बसे ‘सरसीपुर’ गांव की पहचान बस इतनी थी कि वहाँ न बिजली थी, न स्कूल का पक्का भवन और न ही कोई सड़क। गाँव के अधिकांश लोग या तो ईंट भट्टों में काम करते थे या शहरों में चौकीदार बनकर पेट पालते थे। ऐसे ही एक किसान परिवार में जन्मा था "नील"  सांवला, दुबला-पतला, लेकिन आंखों में एक चमक थी जो उसकी उम्र से कहीं आगे की बात करती थी।

नील के पिता एक मामूली खेतिहर मजदूर थे। पांच बच्चों में नील चौथे स्थान पर था। परिवार में पढ़ाई को कोई खास महत्व नहीं दिया जाता था, पर नील बचपन से ही जिज्ञासु था। मिट्टी से लिखना, कोयले से दीवारों पर अक्षर बनाना ये उसकी दिनचर्या थी। गाँव में केवल पाँचवी तक की पाठशाला थी, लेकिन वहाँ के मास्टरजी ने नील की लगन देखकर उसे पढ़ाई से जोड़े रखा।

एक दिन नील की माँ ने एक सवाल किया  “बेटा, तू हर रोज़ इतना क्यों पढ़ता है? आखिर क्या होगा इससे?”नील ने मुस्कुराकर जवाब दिया “माँ, शायद यही मेरा हल है, यही मेरी दिशा है। बाकी सबने तो गांव छोड़ दिया, पर मुझे इस गांव को बदलना है।”

गांव के लोग उसे ताने देते, “इतना पढ़कर क्या करेगा रे? नौकरी तो तेरे बाप को भी न मिली।” पर नील के भीतर किसी अदृश्य स्रोत से ऊर्जा आती थी। वह जानता था  भाग्य से लड़ने का एक ही तरीका है कर्म।

नील ने आगे की पढ़ाई के लिए पास के कस्बे ‘ध्रुवनगर’ के हाई स्कूल में दाखिला लिया। गाँव से 9 किलोमीटर दूर रोज़ पैदल जाना, बरसात में कीचड़ से भरी पगडंडियों से गुज़रना यह अब उसकी दिनचर्या बन गई थी। कई बार पेट खाली होता, चप्पल टूट जाती, और किताबें भीग जाती थीं। लेकिन नील की जिज्ञासा नहीं बुझी।

कभी-कभी लोग उस पर हँसते  “पढ़ाई से क्या होगा? तू कोई डीएम बनने चला है?”

नील चुपचाप मुस्कुराता, और अगले ही दिन एक नई किताब मांगने कस्बे की लाइब्रेरी में पहुंच जाता।

घर की माली हालत दिन-प्रतिदिन बिगड़ रही थी। एक रात पिता ने कहा  “नील, अब बहुत हुआ। पढ़ाई छोड़, ईंट भट्ठे पर चल।” उस रात नील की आंखों में आंसू थे, लेकिन उसने मन में संकल्प लिया  “अब मुझे ही कुछ करना होगा, वरना ये दहलीज़ कभी उजियारा नहीं देखेगी।”

वह दिन में मजदूरी करता और रात में पढ़ता। कक्षा 10वीं की परीक्षा में नील पूरे ब्लॉक में प्रथम आया। अब उसे छात्रवृत्ति मिलने लगी। पहली बार उसके जीवन में किसी ने उसे शाबाशी दी  और वह थी उसकी माँ। माँ ने उसके सिर पर हाथ फेरते हुए कहा “बेटा, तेरे कर्म रंग ला रहे हैं।”

नील ने 12वीं की परीक्षा पास की और उच्च शिक्षा के लिए पटना आया। यहाँ एक और युद्ध उसकी प्रतीक्षा कर रहा था  शहर की क्रूरता, आर्थिक तंगी, और आत्मग्लानि का।

शुरुआती दिन बेहद कठिन थे। उसने एक होटल में जूठे बर्तन धोने का काम पकड़ लिया और रात में एक लॉज के कोने में जलती मोमबत्ती के नीचे पढ़ाई करता था। कभी-कभी भूखा भी सो जाता। लेकिन उसे एक बात स्पष्ट थी  ये सब क्षणिक हैं, कर्म की शक्ति दीर्घजीवी होती है।

एक दिन वह बीमार पड़ गया और कई दिनों तक काम नहीं कर सका। हॉस्टल मालिक ने उसे निकाल दिया। वह फुटपाथ पर आ गया। तब उसने माँ को एक पत्र लिखा  “माँ, लगता है अब हार जाऊँगा।”

माँ ने उत्तर दिया  “नील, तू मेरी आशा है। भगवान कृष्ण ने भी कहा है कर्म कर, फल की चिंता मत कर। तू हार नहीं सकता।” नील ने उसी पल निर्णय लिया “अब नहीं रुकूंगा। चाहे जैसे भी हो, मुझे एक नई सुबह लानी है।”

तीन वर्षों के कठिन परिश्रम के बाद नील ने राज्य सेवा परीक्षा में सफलता प्राप्त की। वह राज्य समाज कल्याण अधिकारी' बना। यह समाचार जब गाँव पहुँचा, तो वही लोग जो उसे ताने मारते थे, अब उसे माला पहनाने की होड़ में थे।

नील पहली बार गांव लौटा तो पिता ने उसकी ओर देखा, पर कुछ बोल नहीं पाए। नील उनके चरणों में गिर पड़ा  “बाबूजी, ये मेरी नहीं, आपकी तपस्या है।”

नील अब हर सप्ताह गाँव के बच्चों को पढ़ाने लगा। उसने गांव में लाइब्रेरी बनवाई, और लड़कियों की पढ़ाई के लिए एक ट्रस्ट शुरू किया। “कर्म पथ” नामक इस ट्रस्ट का नारा था  “जहाँ चाह वहाँ राह।” उसने स्कूल की इमारत बनवाने में अपनी तनख्वाह का बड़ा भाग लगा दिया। वह जानता था  शिक्षा ही परिवर्तन का हथियार है।

समाज में जब भी कोई परिवर्तनकारी कदम उठता है, विरोध भी साथ आता है। कुछ राजनीतिक ताकतों और स्थानीय दबंगों को नील का यह सामाजिक जागरण खटकने लगा। वे उस पर आरोप लगाने लगे कि वह जातिगत भेदभाव कर रहा है, जबकि नील का उद्देश्य था सबका साथ, सबका विकास।

एक दिन नील पर हमला भी हुआ। वह घायल हुआ, अस्पताल में भर्ती हुआ। परंतु उसके होंठों पर मुस्कान थी  “यह पीड़ा मेरे लक्ष्य की परीक्षा है।” उसने अदालत में किसी पर केस नहीं किया। सिर्फ एक पंक्ति लिखी  “मैं क्षमा करता हूँ, क्योंकि मैं कर्म में विश्वास करता हूँ, बदले में नहीं।”

उसके इस व्यवहार ने पूरे जिले को हिला दिया। मीडिया में उसकी खबर चली  “एक कर्मयोगी, जिसने बदल दिया गांव का भविष्य।”

नील अब एक प्रेरक वक्ता बन चुका था। देशभर के विश्वविद्यालयों, संस्थानों में उसे बुलाया जाने लगा। वह हर जगह यही कहता ,“सफलता कोई संयोग नहीं, सतत प्रयासों का परिणाम है। कर्म, तपस्या है — जो फल नहीं, दिशा मांगती है।”

उसने एक बार मंच से कहा ,"जब मैंने कर्म चुना, तब भाग्य ने हार मान ली। मैंने हार नहीं मानी, क्योंकि मेरी आत्मा जानती थी  प्रकाश हमेशा अंधकार के भीतर ही छिपा होता है।" उसके ट्रस्ट ने हजारों बच्चों को शिक्षित किया, और दर्जनों गांवों में विकास योजनाएं पहुंचाई। अब नील कोई ‘व्यक्ति’ नहीं, एक 'विचार' बन चुका था।

समय बीता। नील ने एक वृद्धाश्रम और बच्चों के लिए आवासीय स्कूल की भी शुरुआत की। वह अब भी उसी गाँव में रहता था, जहाँ से उसने जीवन शुरू किया था।

एक दिन, उसी स्कूल के प्रांगण में बच्चों को पढ़ाते हुए, एक नन्ही बच्ची ने पूछा , “सर! क्या आप कभी हार से डरे थे?”

नील मुस्कुराया और कहा ,“डरता तो हर कोई है, पर जो कर्म करता है, वह डर से लड़ना भी सीख जाता है। मैंने कर्म किया इसलिए विजय मिली।”

उसी दिन स्कूल के बाहर एक पत्थर पर खुदा गया:"जहाँ कर्म होता है, वहीं भाग्य निर्माण होता है  यही है नील की विरासत। यही है कर्म की विजय।”

यह कहानी किसी कल्पना का उत्पाद नहीं, बल्कि लाखों संघर्षशील युवाओं का प्रतिनिधित्व है जो आज भी समाज के किसी कोने में अपने भाग्य से जूझते हुए केवल अपने कर्म पर भरोसा रखे हुए हैं। यह कहानी उन्हें समर्पित है, जो कहते हैं “भाग्य अगर लकीरों में है, तो मैं उन्हें कर्म से बदल दूँगा।”


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