रवि सबसे बड़ा था। जब उसके पढ़ने-लिखने के दिन थे, तब उसे किताबों की जगह दूसरों के जूठन धोने पड़े। माँ-बाप का सहारा बनने के लिए उसने पढ़ाई छोड़ दी और गाँव में छोटे-मोटे काम करने लगा। संघर्षों में पला-बढ़ा रवि आखिरकार एक मोटर वाहन चालक बन गया और अपनी मेहनत से परिवार की जिम्मेदारी उठाने लगा।
मोहन, जो बीच वाला भाई था, परिवार की उम्मीदों का केंद्र बन गया। वह पढ़ाई में होशियार था, इसलिए माता-पिता ने उसकी पढ़ाई जारी रखी। गाँव के स्कूल से बारहवीं पास करने के बाद उसने शहर जाकर हायर एजुकेशन हासिल की। वह कड़ी मेहनत से पढ़ता रहा और आखिरकार एक नोकरी पाकर शहर में बस गया।
छोटा भाई, सूरज, दसवीं के बाद पढ़ाई छोड़कर रवि की राह पर चल पड़ा। उसने भी वाहन चलाना सीख लिया और धीरे-धीरे अपने बड़े भाई रवि के तरह काम करने लगा।
समय बीता, मोहन एक सम्मानित नौकरी करने लगा और उसका रहन-सहन बदल गया। जब वह छुट्टियों में गाँव आता, तो उसके हाथों में चमचमाता फोन और महंगे कपड़े होते। माता-पिता को उस पर गर्व था, लेकिन रवि और सूरज के मन में उसके प्रति एक अजीब-सा अलगाव पनपने लगा।
रवि को महसूस हुआ कि उसका त्याग अब किसी को याद नहीं। वह दिन-रात गाड़ी चलाकर जो पैसे कमाता था, वही कभी मोहन की पढ़ाई पर खर्च हुए थे। लेकिन अब मोहन उसे सिर्फ एक साधारण ड्राइवर समझने लगा था। सूरज भी इस बदलाव को महसूस कर रहा था, लेकिन उसने हमेशा बड़े भाई रवि का साथ दिया।
धीरे-धीरे मोहन के शहर जाने के बाद वह घर आने में कम दिलचस्पी लेने लगा। वह अपने नए जीवन में इतना व्यस्त हो गया कि उसे अब गाँव और परिवार की याद कम ही आती। उधर, रवि और सूरज के बीच भाईचारे की डोर मजबूत होती गई। दोनों साथ काम करते, एक-दूसरे का सहारा बनते, और गाँव में अपने माता-पिता की सेवा करते रहे।
एक दिन जब मोहन गाँव आया, तो उसने देखा कि उसके छोटे भाई सूरज ने एक पुरानी टैक्सी खरीद ली थी और वह अपना खुद का छोटा मोटर व्यवसाय चला रहा था। यह देखकर मोहन ने मज़ाकिया लहज़े में कहा, "वाह! तुम लोग तो अभी भी इसी काम में लगे हो? मैं तो सोच रहा था कि अब कुछ बड़ा करोगे।"
रवि को यह तंज़ चुभ गया। उसने शांत स्वर में कहा, "हमारे लिए यही बड़ा है, मोहन। हर आदमी शहर में जाकर दफ्तर की कुर्सी नहीं संभाल सकता। कुछ लोग मेहनत से पेट पालते हैं और उसी में खुश रहते हैं।"
मोहन को यह सुनकर झटका लगा। उसे एहसास हुआ कि उसने जाने-अनजाने अपने भाइयों से दूरी बना ली थी। वह भले ही पढ़-लिखकर आगे बढ़ गया था, लेकिन रिश्तों में उसकी पकड़ ढीली हो गई थी।
अगली सुबह जब मोहन जाने लगा, तो माँ ने कहा, "बेटा, पैसे से जीवन चलता है, लेकिन परिवार से जीवन जुड़ता है। तुमने पढ़ाई की, यह अच्छा है, लेकिन अपने भाइयों को छोटा मत समझो। अगर रवि ने त्याग न किया होता, तो शायद तुम इस मुकाम तक न पहुँचते।"
मोहन ने माँ की बात पर सिर झुका दिया। जाते समय उसने रवि और सूरज से हाथ मिलाया और कहा, "मैंने कभी तुम्हारी अहमियत नहीं समझी। तुम दोनों जो कर रहे हो, वो कम नहीं है।"
रवि मुस्कुराया, और सूरज भी सहज हो गया। तीनों भाइयों के बीच जो खटास आई थी, वह दूर होने लगी। बिना किसी तकरार के जो दूरियाँ आ गई थीं, वे अब समझदारी से मिट रही थीं।रिश्तों की कीमत समझनी चाहिए। जीवन में तरक्की ज़रूरी है, लेकिन अपनों को पीछे छोड़कर आगे बढ़ना कभी भी सच्ची सफलता नहीं होती।