कहानी: रिश्ते और दौलत...

गाँव के एक गरीब किसान परिवार में तीन भाई जन्मे—रवि, मोहन, और सूरज। उनके माता-पिता मेहनत से गुज़र-बसर करते थे और चाहते थे कि उनके बच्चे पढ़-लिखकर अच्छा जीवन जिएँ। पर गरीबी के चलते तीनों की तक़दीरें अलग-अलग मोड़ लेती गईं।

रवि सबसे बड़ा था। जब उसके पढ़ने-लिखने के दिन थे, तब उसे किताबों की जगह दूसरों के जूठन धोने पड़े। माँ-बाप का सहारा बनने के लिए उसने पढ़ाई छोड़ दी और गाँव में छोटे-मोटे काम करने लगा। संघर्षों में पला-बढ़ा रवि आखिरकार एक मोटर वाहन चालक बन गया और अपनी मेहनत से परिवार की जिम्मेदारी उठाने लगा।

मोहन, जो बीच वाला भाई था, परिवार की उम्मीदों का केंद्र बन गया। वह पढ़ाई में होशियार था, इसलिए माता-पिता ने उसकी पढ़ाई जारी रखी। गाँव के स्कूल से बारहवीं पास करने के बाद उसने शहर जाकर हायर एजुकेशन हासिल की। वह कड़ी मेहनत से पढ़ता रहा और आखिरकार एक नोकरी पाकर शहर में बस गया।

छोटा भाई, सूरज, दसवीं के बाद पढ़ाई छोड़कर रवि की राह पर चल पड़ा। उसने भी वाहन चलाना सीख लिया और धीरे-धीरे अपने बड़े भाई रवि के तरह काम करने लगा।

समय बीता, मोहन एक सम्मानित नौकरी करने लगा और उसका रहन-सहन बदल गया। जब वह छुट्टियों में गाँव आता, तो उसके हाथों में चमचमाता फोन और महंगे कपड़े होते। माता-पिता को उस पर गर्व था, लेकिन रवि और सूरज के मन में उसके प्रति एक अजीब-सा अलगाव पनपने लगा।

रवि को महसूस हुआ कि उसका त्याग अब किसी को याद नहीं। वह दिन-रात गाड़ी चलाकर जो पैसे कमाता था, वही कभी मोहन की पढ़ाई पर खर्च हुए थे। लेकिन अब मोहन उसे सिर्फ एक साधारण ड्राइवर समझने लगा था। सूरज भी इस बदलाव को महसूस कर रहा था, लेकिन उसने हमेशा बड़े भाई रवि का साथ दिया।

धीरे-धीरे मोहन के शहर जाने के बाद वह घर आने में कम दिलचस्पी लेने लगा। वह अपने नए जीवन में इतना व्यस्त हो गया कि उसे अब गाँव और परिवार की याद कम ही आती। उधर, रवि और सूरज के बीच भाईचारे की डोर मजबूत होती गई। दोनों साथ काम करते, एक-दूसरे का सहारा बनते, और गाँव में अपने माता-पिता की सेवा करते रहे।

एक दिन जब मोहन गाँव आया, तो उसने देखा कि उसके छोटे भाई सूरज ने एक पुरानी टैक्सी खरीद ली थी और वह अपना खुद का छोटा मोटर व्यवसाय चला रहा था। यह देखकर मोहन ने मज़ाकिया लहज़े में कहा, "वाह! तुम लोग तो अभी भी इसी काम में लगे हो? मैं तो सोच रहा था कि अब कुछ बड़ा करोगे।"

रवि को यह तंज़ चुभ गया। उसने शांत स्वर में कहा, "हमारे लिए यही बड़ा है, मोहन। हर आदमी शहर में जाकर दफ्तर की कुर्सी नहीं संभाल सकता। कुछ लोग मेहनत से पेट पालते हैं और उसी में खुश रहते हैं।"

मोहन को यह सुनकर झटका लगा। उसे एहसास हुआ कि उसने जाने-अनजाने अपने भाइयों से दूरी बना ली थी। वह भले ही पढ़-लिखकर आगे बढ़ गया था, लेकिन रिश्तों में उसकी पकड़ ढीली हो गई थी।

अगली सुबह जब मोहन जाने लगा, तो माँ ने कहा, "बेटा, पैसे से जीवन चलता है, लेकिन परिवार से जीवन जुड़ता है। तुमने पढ़ाई की, यह अच्छा है, लेकिन अपने भाइयों को छोटा मत समझो। अगर रवि ने त्याग न किया होता, तो शायद तुम इस मुकाम तक न पहुँचते।"

मोहन ने माँ की बात पर सिर झुका दिया। जाते समय उसने रवि और सूरज से हाथ मिलाया और कहा, "मैंने कभी तुम्हारी अहमियत नहीं समझी। तुम दोनों जो कर रहे हो, वो कम नहीं है।"

रवि मुस्कुराया, और सूरज भी सहज हो गया। तीनों भाइयों के बीच जो खटास आई थी, वह दूर होने लगी। बिना किसी तकरार के जो दूरियाँ आ गई थीं, वे अब समझदारी से मिट रही थीं।रिश्तों की कीमत समझनी चाहिए। जीवन में तरक्की ज़रूरी है, लेकिन अपनों को पीछे छोड़कर आगे बढ़ना कभी भी सच्ची सफलता नहीं होती।

मोहन शहर लौट गया, लेकिन इस बार वह पहले जैसा नहीं था। उसे अपने बड़े भाई रवि का त्याग और छोटे भाई सूरज की मेहनत याद आने लगी। उसने सोचा कि क्या सच में वह अपनी सफलता के अहंकार में अपने परिवार से दूर होता जा रहा था?

शहर में अपने आरामदायक जीवन के बीच भी उसके मन में गाँव की यादें घूमती रहीं। एक दिन, उसने तय किया कि वह कुछ ऐसा करेगा जिससे वह अपने भाइयों के करीब आ सके और साथ ही उनकी मेहनत का सम्मान भी कर सके।

कुछ महीनों बाद मोहन अचानक गाँव आया। इस बार न तो उसके हाथों में कोई महंगा फोन था और न ही वह किसी शहरी घमंड से भरा हुआ था। वह सीधे रवि और सूरज के पास पहुँचा और बोला,"भइया, मैं चाहता हूँ कि हम तीनों साथ मिलकर कुछ करें। मैं अपनी नौकरी के पैसों से एक ट्रांसपोर्ट कंपनी खोलना चाहता हूँ, जिसमें तुम दोनों मेरे साझेदार रहोगे।"

रवि और सूरज हैरान रह गए। यह वही मोहन था, जो कभी उन्हें छोटे काम करने वाला समझता था! रवि ने संदेह भरे स्वर में पूछा,"लेकिन तुम तो शहर में अच्छी नौकरी कर रहे हो, फिर यह सब क्यों?"

मोहन ने हँसते हुए जवाब दिया,"भइया, मैं शहर में सफल तो हो गया, लेकिन अपनी जड़ों से कट गया। अब मैं सिर्फ अकेला पैसा कमाने के लिए नहीं जीना चाहता, बल्कि अपने भाइयों के साथ मिलकर कुछ करना चाहता हूँ। तुम लोगों ने हमेशा मेहनत की है, अब वक्त है कि हम इसे और बड़ा करें।"

रवि और सूरज ने एक-दूसरे की ओर देखा और फिर मुस्कुरा दिए। वे जानते थे कि मोहन की मंशा सच्ची थी। उन्होंने उसकी योजना पर चर्चा की और तय किया कि वे गाँव में ही एक ट्रांसपोर्ट सर्विस शुरू करेंगे, जहाँ गाँव वालों के लिए छोटे मालवाहक वाहन और टैक्सी सेवाएँ उपलब्ध होंगी।

धीरे-धीरे उनका काम बढ़ने लगा। मोहन अपनी शहरी समझदारी से बिज़नेस मैनेज करता, रवि और सूरज ग्राउंड पर मेहनत करते। उनकी टीम बन गई, और कुछ ही सालों में उनकी कंपनी इलाके की जानी-मानी ट्रांसपोर्ट सर्विस बन गई। अब तीनों भाई फिर से एक हो चुके थे—बिना किसी तकरार के, बिना किसी रार के।

रिश्ते सबसे बड़ी दौलत होते हैं। जब प्यार, सम्मान और सहयोग साथ हो, तो कोई भी चुनौती बड़ी नहीं लगती। जीवन की असली सफलता सिर्फ ऊँचाई पाने में नहीं, बल्कि अपनों को साथ लेकर आगे बढ़ने में है।

(लेखक: विनोद कुमार झा )


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