मकर संक्रांति कथा: शनिदेव ने सूर्यदेव का काले तिल से क्यों किया था स्वागत?

विनोद kumar झा

मकर संक्रांति भारतीय संस्कृति का एक ऐसा पावन पर्व है, जो धार्मिक, आध्यात्मिक, और सांस्कृतिक दृष्टि से अत्यंत महत्वपूर्ण है। यह पर्व सूर्य देवता की आराधना, तिल एवं गंगा स्नान, दान और आत्मा की शुद्धि का प्रतीक माना जाता है। 

पुराणों में मकर संक्रांति के संदर्भ में कई पौराणिक गाथाएं और मान्यताएं वर्णित हैं। यह पर्व भगवान ब्रह्मा, विष्णु, महेश, सूर्यदेव और अन्य देवी-देवताओं की उपासना का समय है, जो तन-मन-आत्मा को नई ऊर्जा और शक्ति प्रदान करता है। संत-महर्षियों का कहना है कि इस दिन के पुण्य प्रभाव से आत्मा शुद्ध होती है, संकल्प शक्ति बढ़ती है, और आध्यात्मिक चेतना का विकास होता है।

मकर संक्रांति के अवसर पर विभिन्न धार्मिक क्रियाओं का उल्लेख पुराणों, महाकाव्यों, और लोककथाओं में मिलता है। चाहे वह रामायण काल में श्रीराम की सूर्य पूजा हो, राजा भगीरथ द्वारा गंगा का पृथ्वी पर अवतरण, या महाभारत काल में भीष्म पितामह का उत्तरायण काल में शरीर त्याग। इस पर्व से जुड़ी सभी कथाएं भारतीय संस्कृति की गहराई और अध्यात्मिकता को उजागर करती हैं।

आइए, मकर संक्रांति से संबंधित पौराणिक कथाओं को विस्तार से जाने:- पौराणिक कथाओं के अनुसार, सूर्य देव और शनिदेव में अच्छे संबंध नहीं थे। दरअसल. इसका कारण था सूर्य देव का शनि की माता छाया के प्रति उनका व्यवहार। दरअसल, शनि देव का रंग काला होने के कारण सूर्य देव ने उनके जन्म के दौरान कहा था कि ऐसा पुत्र मेरा नहीं हो सकता। इसके बाद से सूर्य देव ने शनि देव और उनकी माता छाया को अलग कर दिया था। जिस घर में वह रहते थे उसका नाम कुंभ था।

सूर्यदेव के ऐसे व्यवहार से क्रोधित होकर छाया ने उन्हें श्राप दे दिया था। माता छाया ने सूर्यदेव को कुष्ठ रोग का श्राप दिया था। जिससे क्रोधित होकर सूर्यदेव ने छाया और शनिदेव का घर जलाकर राख कर दिया था। सूर्यदेव के पुत्र यम ने सूर्य देव को उस श्राप से मुक्त किया था। साथ ही उनके सामने मांग रखी थी की वह उनकी माता यानी छाया के साथ अपने व्यवहार में बदलाव लाएं।

इसके बाद सूर्यदेव छाया और शनिदेव से मिलने के लिए उनके घर पहुंचे थे। जब सूर्यदेव वहा पहुंचे तो उन्होंने देखा की वहां कुछ भी नहीं था सब कुछ जलकर बर्बाद हो गया था। इसके बाद शनिदेव ने काले तिल से अपने पिता का स्वागत किया था। शनिदेव के ऐसे व्यवहार से प्रसन्न होकर सूर्यदेव ने उस दिन उन्हें नया घर दिया जिसका नाम था मकर। इसके बाद से ही शनिदेव दो राशियों कुंभ और मकर के स्वामी हो गए। शनिदेव के इस व्यवहार से प्रसन्न होकर सूर्यदेव ने उन्हें यह भी कहा कि जब भी वह मकर संक्रांति के मौके पर उनके घर आएंगे तो उनका घर धन धान्य से भर जाएगा। उनके पास किसी भी वस्तु की कमी नहीं रहेगी। साथ ही यह भी कहा कि इस दिन जो लोग भी मकर संक्रांति के मौके पर मुझे काले तिल आर्पित करेंगे उनके जीवन में सुख समृद्धि आएगी। इसलिए मकर संक्रांति के मौके पर सूर्य देव की पूजा में काले तिल का इस्तेमाल करने से व्यक्ति के घर में धन धान्य की कोई कमी नहीं रहती है।

 कथा-2 : एक और कथा रामायण काल से जुड़ी है राम कथा में मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम द्वारा नित्य सूर्य पूजा का उल्लेख मिलता है।राजा भगीरथ सूर्यवंशी थे, जिन्होंने भगीरथ तप साधना के परिणामस्वरूप पापनाशिनी गंगा को पृथ्वी पर लाकर अपने पूर्वजों को मोक्ष प्रदान करवाया था। राजा भगीरथ ने अपने पूर्वजों का गंगाजल, अक्षत, तिल से श्राद्ध तर्पण किया था। तब से माघ मकर संक्रांति स्नान और मकर संक्रांति श्राद्ध तर्पण की प्रथा आज तक प्रचलित है।

 कथा-3: कपिल मुनि के आश्रम पर जिस दिन मातु गंगे का पदार्पण हुआ था, वह मकर संक्रांति का दिन था। पावन गंगा जल के स्पर्श मात्र से राजा भगीरथ के पूर्वजों को स्वर्ग की प्राप्ति हुई थी। कपिल मुनि ने वरदान देते हुए कहा था, 'मातु गंगे त्रिकाल तक जन-जन का पापहरण करेंगी और भक्तजनों की सात पीढ़ियों को मुक्ति एवं मोक्ष प्रदान करेंगी। गंगा जल का स्पर्श, पान, स्नान और दर्शन सभी पुण्यदायक फल प्रदान करेगा।'

 कथा-4:  महाभारतकालीन कथा के अनुसार में पितामह भीष्म ने सूर्य के उत्तरायण होने पर ही स्वेच्छा से शरीर का परित्याग किया था। उनका श्राद्ध संस्कार भी सूर्य की उत्तरायण गति में हुआ था। फलतः आज तक पितरों की प्रसन्नता के लिए तिल अर्घ्य एवं जल तर्पण की प्रथा मकर संक्रांति के अवसर पर प्रचलित है।

सूर्य की सातवीं किरण भारत वर्ष में आध्यात्मिक उन्नति की प्रेरणा देने वाली है। सातवीं किरण का प्रभाव भारत वर्ष में गंगा-जमुना के मध्य अधिक समय तक रहता है। इस भौगोलिक स्थिति के कारण ही हरिद्वार और प्रयाग में माघ मेला अर्थात मकर संक्रांति या पूर्ण कुंभ तथा अर्द्धकुंभ के विशेष उत्सव का आयोजन होता है।







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