विनोद कुमार झा
धार्मिक मान्यताओं के अनुसार रावण, जिसे हम रामायण महाकाव्य में राक्षसराज और लंकापति के रूप में जानते हैं, केवल एक शक्तिशाली पात्र नहीं था, बल्कि उसके पीछे तीन जन्मों की एक गूढ़ और दिलचस्प कथा है। रावण का अस्तित्व किसी सामान्य व्यक्ति का नहीं, बल्कि भगवान विष्णु के निकटतम द्वारपालों में से एक जय और विजय के श्राप से जुड़ा है। इस श्राप के कारण जय और विजय को राक्षस योनि में तीन बार जन्म लेना पड़ा। यह पौराणिक कथा न केवल रावण के जीवन का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है, बल्कि यह भगवान विष्णु के अवतारों के साथ उनके संघर्षों की भी एक महत्त्वपूर्ण कहानी है।
भगवान विष्णु के द्वारपाल और श्राप की शुरुआत
पौराणिक कथाओं के अनुसार, एक बार सनक, सनंदन, सनातन, और सनत्कुमार नामक ऋषिगण भगवान विष्णु के दर्शन के लिए बैकुंठ धाम पहुँचे। भगवान विष्णु के द्वारपाल जय और विजय, जो अपने कर्तव्यों के प्रति अत्यंत निष्ठावान थे, ने उन्हें भीतर जाने से रोक दिया। यह देखकर ऋषिगण क्रोधित हो गए और जय-विजय को श्राप दे दिया कि वे राक्षस योनि में जन्म लेंगे। यह श्राप इतना तीव्र था कि जय और विजय ने भगवान विष्णु से क्षमा माँगी। भगवान विष्णु ने उन्हें समझाया कि उन्हें इस श्राप को भुगतना ही पड़ेगा, लेकिन उन्होंने ऋषियों से श्राप की तीव्रता को कम करने का अनुरोध किया। ऋषियों ने अपनी दया दिखाते हुए कहा कि जय-विजय तीन जन्मों तक राक्षस योनि में रहेंगे और फिर अपने वास्तविक स्वरूप में लौट सकेंगे। साथ ही, यह भी शर्त रखी गई कि वे भगवान विष्णु के हाथों ही मारे जाएंगे।
पहला जन्म: हिरण्याक्ष और हिरण्यकशिपु
जय और विजय का पहला जन्म हिरण्याक्ष और हिरण्यकशिपु के रूप में हुआ। हिरण्याक्ष ने अपनी शक्ति का दुरुपयोग करते हुए पृथ्वी को पाताल लोक में ले जाकर वहाँ छिपा दिया था। इस संकट से पृथ्वी को मुक्त कराने के लिए भगवान विष्णु ने वराह अवतार धारण किया और हिरण्याक्ष का वध कर पृथ्वी को वापस अपने स्थान पर स्थापित किया। वहीं, हिरण्यकशिपु ने वरदान प्राप्त कर अपने अत्याचारों को और बढ़ा दिया। उसका पुत्र प्रह्लाद, जो भगवान विष्णु का परम भक्त था, उसकी धार्मिकता के कारण अपने पिता का शत्रु बन गया। हिरण्यकशिपु ने प्रह्लाद को मारने के लिए कई प्रयास किए, लेकिन अंततः भगवान विष्णु ने नृसिंह अवतार लेकर हिरण्यकशिपु का वध किया। यह घटना ईश्वर की सर्वव्यापकता का प्रतीक मानी जाती है, जब भगवान नृसिंह ने खंभे से प्रकट होकर भक्त प्रह्लाद को बचाया और अधर्म का अंत किया।
दूसरा जन्म: रावण और कुंभकर्ण
त्रेतायुग में, जय और विजय ने रावण और कुंभकर्ण के रूप में जन्म लिया। रावण अद्वितीय शक्ति और विद्वत्ता का धनी था, लेकिन उसका अहंकार और अज्ञान उसे विनाश की ओर ले गया। उसने अपने भाई कुंभकर्ण के साथ मिलकर भगवान राम और उनके अनुज लक्ष्मण से युद्ध किया। भगवान राम, भगवान विष्णु के अवतार के रूप में, रावण का वध करके धर्म की पुनर्स्थापना की। कुंभकर्ण, जो कि अद्वितीय बलशाली था, भी भगवान राम के हाथों मारा गया।
तीसरा जन्म: शिशुपाल और दंतवक्त्र
द्वापर युग में, जय और विजय ने शिशुपाल और दंतवक्त्र के रूप में जन्म लिया। शिशुपाल, जो कि भगवान श्रीकृष्ण का चचेरा भाई था, श्रीकृष्ण का कट्टर शत्रु था। शिशुपाल ने श्रीकृष्ण के प्रति अपमानजनक व्यवहार किया और अंततः श्रीकृष्ण के हाथों उसका वध हुआ। दंतवक्त्र भी श्रीकृष्ण का विरोधी था और उसने कई बार श्रीकृष्ण के खिलाफ षड्यंत्र रचे। लेकिन अंततः भगवान श्रीकृष्ण ने उसका वध कर उसे उसके पूर्वजन्म के श्राप से मुक्त किया।
श्राप से मुक्ति और पुनर्स्थापना
तीन जन्मों के इस चक्र के बाद, जय और विजय अपने असली स्वरूप में वापस आ गए और भगवान विष्णु के द्वारपाल के रूप में अपनी सेवा में लौट आए। यह कथा हमें यह सिखाती है कि अधर्म और अहंकार का अंत निश्चित है, चाहे वह कितनी भी शक्ति या सामर्थ्य से क्यों न हो। भगवान विष्णु के अवतारों ने हर युग में अधर्म का नाश कर धर्म की स्थापना की है, और यह जय और विजय की इस यात्रा से भी स्पष्ट होता है।
रावण की ये पूर्वजन्म की कथाएँ केवल एक धार्मिक और पौराणिक कहानी भर नहीं हैं, बल्कि यह हमें यह भी सिखाती हैं कि कर्मों का फल अवश्य मिलता है, चाहे वह अच्छा हो या बुरा, और भगवान की लीला में सब कुछ पूर्वनिर्धारित होता है।