मानसरोवर के हंस: वफादारी और स्वामि-भक्ति की प्रेरक कथा

Khabar Morning

प्राचीन काल में 'कैलाश मानस-सरोवर' में हंसों का निवास स्थान हुआ करता था, उन हंसों की सुंदरता और कलरव काफी मनोरम  होतेथे। इन सफेद हंसों के बीच दो स्वर्ण हंस रहते थे, जिनका नाम राजा धृतराष्ट्र और सेनापति सुमुख था। दोनों हंसों का गुण-सौंदर्य देवताओं, यक्षों, और नागों के बीच प्रसिद्ध था, लेकिन धीरे-धीरे यह चर्चा मनुष्यों तक भी पहुंच गए जिनकी कथाएं इस प्रकार है -

वाराणसी के राजा ने इन अद्वितीय हंसों की महिमा सुनी और उन्हें पाने की प्रबल इच्छा की। उन्होंने अपने राज्य में मानस-सरोवर के समान एक सुंदर सरोवर का निर्माण करवाया, जहां विभिन्न जलीय पौधों और सुंदर पक्षियों को बसाया गया। उन्होंने उन पक्षियों की सुरक्षा सुनिश्चित की, जिससे वहां अनेक पक्षी निडर होकर विचरण करने लगे।

एक बार मानसरोवर के राजा धृतराष्ट्र और उनके सेनापति सुमुख वाराणसी के ऊपर से उड़ते हुए गए और राजा द्वारा निर्मित सरोवर की सुंदरता से आकर्षित हो गए। वे वहां कुछ समय के लिए रुके और सरोवर की रमणीयता का आनंद लिया। लौटकर उन्होंने अपने साथियों को इस सरोवर की प्रशंसा सुनाई, जिससे मानस के सभी हंस वहां जाने के लिए उत्सुक हो उठे।

राजा धृतराष्ट्र ने हंसों को वाराणसी जाने के खतरों के बारे में आगाह किया, लेकिन अंततः हंसों की जिद के आगे उन्हें झुकना पड़ा। मानस के समस्त हंस वाराणसी के सरोवर की ओर चल पड़े। जब हंसों का आगमन हुआ, तो वाराणसी के राजा ने अपने निषाद को विशेष हंसों को पकड़ने के लिए नियुक्त किया।

एक दिन राजा धृतराष्ट्र निषाद द्वारा बिछाए गए जाल में फंस गए। उन्होंने अपनी चिंता छोड़कर अपने साथी हंसों को वहां से उड़ जाने का आदेश दिया, जिससे सभी हंस तुरंत उड़ गए। मगर उनका सेनापति सुमुख उनके पास ही डटा रहा। जब निषाद ने यह देखा तो वह चकित रह गया। सुमुख ने उसे बताया कि उसके जीवन से बढ़कर उसकी वफादारी और स्वामि-भक्ति महत्वपूर्ण है। यह सुनकर निषाद का हृदय परिवर्तन हो गया और उसने दोनों हंसों को मुक्त कर दिया।

दोनों हंसों ने निषाद की सहायता के लिए उसे राजा के दरबार में ले जाने का निर्णय किया। जब वे निषाद के कंधों पर सवार होकर राजा के दरबार पहुंचे, तो सभी दरबारी आश्चर्यचकित हो गए। राजा ने जब हंसों की कहानी सुनी, तो उसने निषाद को दंडमुक्त कर दिया और उसे पुरस्कृत किया। राजा ने उन ज्ञानी हंसों का आतिथ्य स्वीकार किया और उनके उपदेशों को आदरपूर्वक सुना और पुनः मानसरोवर लौट गए।

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