#कोहरे में लिपटी ज़िंदगी, गर्म होती भावनाएँ...

 यह कहानी है ठंड के बीच गर्म होते रिश्तों की, जीवन की जिद और उम्मीद की

लेखक: विनोद कुमार झा

ठंड की तीखी सांसों और कोहरे की घनी चादर में लिपटी सुबह… जहाँ दांत अनायास खटखटाते हैं, सड़कों पर रेंगते वाहन धैर्य की परीक्षा लेते हैं और घरों में लोग रज़ाइयों के भीतर दुबक जाते हैं। उसी ठिठुरन में #बच्चे बस्ते कंधे पर टांगे स्कूल की ओर बढ़ते हैं, पेड़ों के नीचे अलाव सुलगते हैं, फूटपाथ पर सोते लोग सर्द रात का हिसाब चुकाते हैं और इसी सबके बीच, एक पार्क के चबूतरे पर बैठी दो धड़कनें अपने-अपने डर उतारकर खुशी का इज़हार करती हैं। #यह कहानी है ठंड के बीच गर्म होते रिश्तों की, जीवन की जिद और उम्मीद की।#

सुबह अभी पूरी तरह उजली नहीं हुई थी। कोहरा इतना घना था कि सामने की चीज़ें अपनी पहचान खो बैठतीं। हवा में सुइयों-सी चुभन थी, जो गालों से टकराकर भीतर तक उतर जाती। हर सांस के साथ भाप निकलती और लगता मानो समय भी ठिठुरकर धीमा हो गया हो। #छतों पर जमी ओस, खिड़कियों पर उभरे पानी के मोती सब मिलकर सर्दी का एक खामोश गीत गा रहे #थे।

गलियों में घरों के दरवाज़े देर से खुलते। लोग रज़ाइयों में सिमटे, रेडियो या मोबाइल पर मौसम की खबरें सुनते हुए खुद को समझाते कि आज भी दिन कट ही जाएगा। चाय की केतली से उठती भाप ही वह पहली गर्मी थी, जो हाथों और मन दोनों को थोड़ी राहत देती। वहीं बाहर, सड़कें मानो अपनी सांस रोककर खड़ी थीं। वाहन रेंग-रेंगकर चलते, हेडलाइट्स की रोशनी कोहरा निगल जाता। हॉर्न की आवाज़ें भी धुंध में घुलकर खो जातीं।

इसी धुंध में, छोटे-छोटे कदमों की कतार स्कूल की ओर बढ़ती दिखती। बच्चे मोटे स्वेटर, मफलर और टोपी में लिपटे, बस्ते की पट्टियाँ कसकर पकड़े हुए थे। उनके चेहरे लाल थे, पर आँखों में एक अलग चमक कभी शरारत की, कभी जिम्मेदारी की। ठंड उनकी हिम्मत नहीं तोड़ पाई थी; वे जानते थे कि स्कूल की घंटी, दोस्तों की हँसी और मास्टरजी की डाँट इन सबके बीच सर्दी थोड़ी कम लगने लगती है।

पेड़ों के नीचे अलाव जल चुके थे। सूखी टहनियाँ चटकतीं, आग की लपटें उछलतीं और लोग हाथ सेंकते हुए दिनभर की योजनाएँ गढ़ते। कोई बीड़ी सुलगाता, कोई चाय की प्याली थामे देर तक आग को ताकता रहता मानो उसी में अपने कल की गरमी ढूँढ रहा हो। अलाव के आसपास बैठी आँखों में थकान थी, पर उम्मीद भी थी। ठंड ने उन्हें और पास ला दिया था।

फूटपाथ पर सोते लोग, जिन्होंने रात को तारों के नीचे गुजारा था, सुबह की सर्दी से पहले ही जूझ चुके थे। अखबारों और पुरानी चादरों में खुद को लपेटे वे जागते, अंगड़ाई लेते और दिन की तलाश में निकल पड़ते। उनकी दुनिया में ठंड केवल मौसम नहीं एक चुनौती थी, जिसे हर सुबह पार करना होता।

और इसी सबके बीच, शहर के एक छोटे-से पार्क में बना चबूतरा कोहरे के भीतर एक शांत द्वीप-सा दो युवाओं की गवाही दे रहा था। वे पास-पास बैठे थे, पर उनके बीच की दूरी शब्दों से नहीं, धड़कनों से मापी जा रही थी। लड़की ने अपने दुपट्टे का सिरा कसकर पकड़ा, लड़के ने हाथ जेब में डालकर हिम्मत जुटाई। ठंड ने उनके होंठ सुन्न कर दिए थे, पर दिल गर्म था।

“#आज बहुत ठंड है,” उसने कहा साधारण-सा वाक्य, पर उसमें छुपी थी एक चाह। “हाँ,” उसने मुस्कराकर जवाब दिया, “पर तुम्हारे साथ यह भी कम लगती है।”

कोहरा उनके चारों ओर और गाढ़ा हो गया, मानो दुनिया ने उन्हें थोड़ा सा अकेलापन दे दिया हो। उस चबूतरे पर बैठकर उन्होंने अपने डर, अपने सपने और अपनी खुशियाँ बाँटीं। कोई वादा बड़ा नहीं था बस साथ चलने की बात, मुश्किलों में हाथ थामे रहने का भरोसा। ठंड ने उन्हें सिखाया था कि गरमी बाहर नहीं, भीतर खोजनी होती है।

दूर से स्कूल की घंटी की आवाज़ आई, सड़क पर किसी बस का इंजन गुर्राया, अलाव की आग फिर चटकी। शहर अपनी गति पकड़ रहा था। कोहरा धीरे-धीरे हल्का पड़ने लगा, पर उस चबूतरे पर बैठी खुशी साफ़ थी जैसी धूप की पहली किरण। दिन आगे बढ़ा। लोग अपने-अपने रास्तों पर निकल पड़े। ठंड अभी भी थी, हवाएँ अभी भी तेज़ थीं पर कहीं न कहीं, किसी के भीतर एक नई गरमी जन्म ले चुकी थी। यह कहानी सिर्फ मौसम की नहीं थी; यह कहानी थी ज़िंदगी की, जो हर सर्द सुबह के बावजूद मुस्कुराना नहीं भूलती।

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