सिगार की धुंआ (एक आत्मिक प्रेम कथा)

 लेखक : विनोद कुमार झा

दिल्ली की रातों में एक अजीब-सी ठंड उतर आई थी। हवा में नमी थी, और सड़कों पर चलती गाड़ियों के बीच कहीं दूर किसी होटल की छत से सिगार का धुंआ धीरे-धीरे ऊपर उठ रहा था। उस धुंए के पीछे खड़ा था गंगेश। लंबा कद, सधे हुए कदम, आंखों में ठहराव और चेहरे पर एक अनकही थकान। वह अपने हाथों में जली हुई सिगार को देखता रहा मानो हर कश के साथ अपने भीतर की कोई बात जलाकर उड़ा देना चाहता हो।

लेकिन कुछ बातें जलती नहीं... बस भीतर धुंआ बनकर रह जाती हैं। वह शाम भी ऐसी ही थी। कॉर्पोरेट दफ्तर की मीटिंग के बाद, सबके बीच शोर था, हंसी थी, लेकिन गंगेश के भीतर सन्नाटा। वह बालकनी में आया, हवा में धुंआ छोड़ा तभी उसके पीछे किसी ने कहा, “सिगार की खुशबू बहुत भारी होती है… पर किसी को पसंद भी आ सकती है अगर उसमें कहानी हो।”

  वह पलटा, सामने मायरा खड़ी थी। कंधों तक बाल, हल्की मुस्कान, आंखों में एक अजीब-सी गहराई  जैसे कोई पुरानी पहचान। गंगेश ने सिर्फ इतना कहा, “आपको इसकी खुशबू पसंद है?” वह मुस्कराई, “पसंद नहीं, पहचान है।” इतना कहकर वह चली गई। लेकिन वह “पहचान” शब्द गंगेश के मन में ऐसे उतर गया जैसे कोई बीज जो चुपचाप अंकुरित होने लगे।

  दिन बीतते गए। मायरा उसी कंपनी की नई क्रिएटिव डायरेक्टर थी। बैठकों में, कॉफी मशीन के पास, या ऑफिस की छत पर — कभी न कभी उनकी बातें हो ही जातीं। मायरा में कुछ था जो गंगेश को बेचैन करता था  वह बोलती तो लगता जैसे उसकी आवाज़ पहले भी कहीं सुनी हो, शायद किसी पुराने सपने में। एक दिन गंगेश ने पूछा, “क्या हम पहले मिले हैं?” मायरा ने बिना चौंके कहा, “शायद। लेकिन याद करना अब ज़रूरी नहीं।” उसकी बातों में रहस्य था, पर अपनापन भी। और गंगेश उस धुंध में डूबता चला गया जैसे कोई पुरानी स्मृति लौट रही हो, पर अधूरी।

   गंगेश रातों को जागने लगा। बालकनी में बैठकर वही सिगार पीता और मायरा के शब्दों को याद करता। उसे लगता, धुंआ किसी पुराने जीवन की तस्वीरें बना रहा है कि कभी किसी पहाड़ी जगह की झील, कभी किसी पुराने मंदिर की घंटी की आवाज़, और कभी एक स्त्री का चेहरा, जो मायरा की तरह मुस्करा रहा था। वह घबरा जाता। क्या यह भ्रम है? या आत्मा सचमुच यादें रखती है?

    एक रात ऑफिस की पार्टी के बाद, सब चले गए थे। सिर्फ मायरा और गंगेश बचे थे। वह बालकनी में खड़ी थी, और आसमान की ओर देख रही थी। गंगेश ने पूछा, “आप हमेशा इतनी खामोश क्यों रहती हैं?” मायरा ने कहा, “क्योंकि कुछ बातें सिर्फ आत्मा सुनती है। ज़ुबान उन्हें तोड़ देती है।”

गंगेश ने सिगार सुलगाया। धुंआ दोनों के बीच फैल गया। उसने धीरे से कहा, “कभी-कभी लगता है जैसे हम अधूरी कहानी के किरदार हैं।” मायरा ने उसकी ओर देखा, “क्योंकि शायद हम हैं भी।”

कुछ दिनों बाद मायरा अचानक ऑफिस से छुट्टी पर चली गई। तीन दिन तक वह नहीं आई। चौथे दिन गंगेश को उसके नाम से एक लिफ़ाफ़ा मिला , अंदर बस एक पन्ना था। लिखा था, “गंगेश, अगर तुम्हें सच जानना है तो शनिवार रात 8 बजे ‘लोधी कब्रिस्तान’ आना। वहीं, जहां पुराने बरगद के नीचे लाल फूल गिरते हैं।”

वह रात अजीब थी। दिल्ली की सर्द हवा में वह वहाँ पहुँचा। बरगद के नीचे लाल फूलों की परत थी  और वहीं खड़ी थी मायरा। उसकी आंखों में नमी थी, और होंठों पर एक शांत मुस्कान। “गंगेश,” उसने कहा, “तुम्हें याद नहीं होगा, पर मैं जानती हूं  ये जगह हम दोनों की कहानी का अंत थी… पिछले जन्म में।” गंगेश सन्न रह गया। वह बोली, “तुम वही सिपाही थे जो इस शहर के राजकुमार की रक्षा करता था। और मैं वो लड़की, जिसे तुमने बचाने की कोशिश की थी, लेकिन दोनों की मौत यहीं हुई थी  इसी बरगद के नीचे।” वह धीमे से बोली, “शायद आत्माएं वही लौटती हैं जहां उन्हें अधूरापन मिला हो।”

  गंगेश की आंखों से आंसू बह निकले। “अगर ये सच है तो क्या हम फिर जिएंगे उस कहानी को?” मायरा मुस्कराई, “नहीं… इस बार कहानी अधूरी नहीं रहेगी।” उस रात दोनों बिना बोले वहीं बैठे रहे। सर्द हवा में, पुराने फूलों की खुशबू और सिगार का धुंआ  तीनों मिलकर जैसे कोई अनकहा वादा कर रहे थे। अगले कुछ हफ्तों में दोनों की ज़िंदगी बदल गई। वे अब सिर्फ प्रेमी नहीं रहे  वे आत्मिक साथी थे। मायरा ने गंगेश को सिखाया कि प्रेम का मतलब साथ होना नहीं, बल्कि एक-दूसरे को समझ लेना है। गंगेश ने मायरा से सीखा कि कुछ रिश्ते वक्त से नहीं, नियति से बनते हैं।

 कुछ महीनों बाद मायरा को विदेश जाना पड़ा, एक नए प्रोजेक्ट के लिए। गंगेश ने उसे विदा करते हुए बस इतना कहा,

“अगर कभी सिगार का धुंआ तुम्हें छू जाए, समझना मैं पास हूं।” मायरा की आंखों में आंसू थे, “और अगर हवा में फूलों की खुशबू आ जाए, समझना मैं लौट आई हूं।”

 वह चली गई। लेकिन हर रात, गंगेश अपनी बालकनी में खड़ा होकर सिगार सुलगाता  धुंए में उसे मायरा का चेहरा दिखता, मुस्कुराता, जैसे आत्मा कह रही हो  “प्रेम मिटता नहीं, बस रूप बदल लेता है।” कई साल बीत गए। गंगेश अब शहर की भागदौड़ से दूर एक शांत घर में रहता था।

सफेद बाल, पर वही ठहराव आंखों में। वह हर शाम सिगार जलाता और आसमान की ओर देखता  एक दिन उसने देखा, धुंए में फिर वही लाल फूल झर रहे थे, और वही आवाज़ “गंगेश…”

 वह मुस्कराया, आंखें बंद कीं, और सिगार का आखिरी कश लिया। धुंए की वह लकीर जैसे आसमान में एक रूप बन गई मायरा का चेहरा। वह हवा में मिल गया… और बस धुंए में रह गई एक खुशबू  आत्मिक प्रेम की। कभी-कभी प्रेम शब्दों से नहीं लिखा जाता। वह बस धुंए की तरह होता है  दिखता है, महसूस होता है, पर पकड़ में नहीं आता। गंगेश और मायरा की कहानी भी ऐसी ही थी जहां सिगार का धुंआ केवल धुंआ नहीं, बल्कि आत्मा की पहचान बन गया था।

समाप्त

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