चटकते पत्थर (एक संवेदनशील प्रेम और संघर्ष की कथा)

 लेखक : विनोद कुमार झा

राजस्थान की तपती धरती पर जब सूरज अपने सबसे निष्ठुर रूप में चमकता है, तो रेत, पत्थर, और इंसान  तीनों एक जैसी चमक और पीड़ा में घुल जाते हैं। धरती फटती है, पत्थर चटकते हैं, और दिल भी। पर कुछ पत्थर ऐसे होते हैं जो टूटकर भी आवाज़ देते हैं, वो आवाज़ जो किसी की उम्मीद बन जाती है। यह कहानी है गौरी की, एक मजदूर लड़की जो हर दिन पत्थर तोड़ती है, और शंभू सिंह की  जो शहर से आया एक सरकारी अफ़सर है, पर दिल से एक इंसान। उनके बीच कोई वादा नहीं, कोई प्रेम-पत्र नहीं, बस एक ऐसा रिश्ता जो “मदद” से शुरू होकर “त्याग” पर ख़त्म होता है।

भवानीपुर गाँव में सुबह कभी ठंडी नहीं होती थी। सूरज की पहली किरणें जैसे ही रेतीली ज़मीन को छूतीं, हवा में धूल उड़ने लगती और खदानों में हथौड़ों की ठक-ठक गूंज उठती। गौरी अपने सिर पर दो घड़े रखे, नंगे पैर चलती थी। उसकी उम्र मुश्किल से बीस की रही होगी, पर उसके हाथों की नसें किसी बूढ़े मजदूर जैसी उभर आई थीं। वो रोज़ सुबह पानी लाने जाती, फिर अपने पिता रघुनाथ के साथ खदान पर पहुँच जाती।

“धीरे बिटिया, पत्थर गीले हैं, पैर फिसल जाएगा,” रघुनाथ ने चेताया। गौरी मुस्कुराई, “अब तो पत्थर भी पहचानने लगे हैं, बाबा।” दोनों की हँसी में पसीने का स्वाद था। कठिनाई इस गाँव की हवा में थी, यहाँ मिट्टी नहीं, सिर्फ़ पत्थर थे, और उन पत्थरों के बीच ही लोग अपनी रोटी का रास्ता ढूँढते थे।

एक दिन खदान में खबर फैली कि “सरकार ने नया अफ़सर भेजा है, निरीक्षण के लिए!” वो था शंभू सिंह, तीस-बत्तीस साल का एक शांत, पर दृढ़ चेहरे वाला आदमी। सादी खादी की शर्ट, पैरों में धूल भरे जूते, और आँखों में साफ़ नजर।

पहले दिन ही जब उसने मजदूरों को देखा, तो उसके चेहरे पर एक अजीब सी व्यथा उभरी। सूरज के नीचे झुके हुए सैकड़ों लोग, महिलाओं की झुकी पीठें, बच्चों की खाली आँखें, ये दृश्य किसी रिपोर्ट में नहीं लिखा जा सकता था। वो पास आया, और बोला, “यहाँ पानी की व्यवस्था नहीं?”

एक मजदूर बोला, “सर, पानी तो है... पर खुद नहीं आता।”और सब हँस पड़े। शंभू ने उसी दिन से काम शुरू कर दिया, पानी की टंकी लगवाई, छाँव के तंबू डलवाए, और मजदूरों की मज़दूरी का हिसाब साफ़ करवाया।

गौरी ने उसे पहली बार देखा, उसकी आँखों में करुणा थी, और आवाज़ में इज़्ज़त। गाँव में किसी ने अब तक मजदूरों से इस तरह बात नहीं की थी। एक शाम शंभू खदान के किनारे बैठा था। गौरी ने पास आकर कहा, “साहब, आप हर रोज़ देर तक बैठे रहते हैं... कुछ सोचते हैं क्या?”

शंभू मुस्कुराया, “हाँ, सोचता हूँ कि ये हथौड़े जितनी ताकत इन हाथों में है, उतनी अगर किताबों में होती तो कोई पत्थर तोड़ने की ज़रूरत नहीं पड़ती।”गौरी चुप रही। थोड़ी देर बाद बोली, “मैं भी पढ़ना चाहती थी... पर यहाँ तो स्कूल भी पत्थर के नीचे दबा है।”शंभू ने उसे देखा। “अगर सच में चाहती हो, तो मैं सिखाऊँगा।”

गौरी ने पहले तो हँसकर टाल दिया, पर अगले दिन जब वह शाम को लौटी, तो शंभू मिट्टी में “अ” लिखकर इंतज़ार कर रहा था। “ये देखो  ये पहला अक्षर है, और इस अक्षर में पूरा संसार है।” धीरे-धीरे हर दिन पढ़ाई शुरू हो गई। गौरी सीखने लगी, समझने लगी, अब उसके भीतर कोई नर्म धारा बहने लगी थी। वो महसूस करने लगी कि शायद पत्थर भी एक दिन बोल सकते हैं।

पर गाँव की हवा साफ़ कहाँ रहती है। लोगों ने बातें बनानी शुरू कीं ,“शंभू और गौरी रोज़ मिलते हैं... कुछ तो चल रहा होगा।” पुराने ठेकेदारों को भी तकलीफ हुई। मजदूर अब सवाल करने लगे थे। कोई कहता, “हमें पूरा दाम चाहिए।” कोई कहता, “छाँव में काम करेंगे।”

शंभू का सुधार सबको अखरने लगा। एक शाम रघुनाथ को धमकी मिली ,“अपनी बिटिया को स्कूल भेजना बंद कर दे, वरना खदान से नाम काट दिया जाएगा।” रघुनाथ ने रात में गौरी से कहा, “बिटिया, तू अब न पढ़े, ये लोग खतरनाक हैं।” गौरी ने दृढ़ स्वर में कहा, “बाबा, अगर पत्थर चटक सकते हैं, तो आवाज़ भी निकाल सकते हैं। मैं नहीं डरूँगी।” शंभू ने भी उसे समझाया, “गौरी, सीखना सबसे बड़ा साहस है, पर हर साहस की कीमत होती है।” गौरी मुस्कुराई, “तो मैं देने को तैयार हूँ।”

बरसात का मौसम था। खदान के ऊपर काले बादल छा गए थे,और मजदूरों को काम रोकने को कहा गया। पर ठेकेदारों ने दबाव बनाया , “कल का ठेका पूरा होना है, काम बंद नहीं होगा।” गौरी को डर लगा। उसने शंभू से कहा, “आज दीवारें गीली हैं, गिर सकती हैं।” शंभू ने अफसर को फोन किया, “काम रोकिए तुरंत, खतरा है।” पर आदेश अनसुना रह गया। और उसी रात, एक भयानक आवाज़ के साथ खदान की दीवार धँस गई। चीखें गूंजीं  “बचाओ... कोई है?” गौरी भागी। उसने अपने पिता को खोजा, शंभू भी वहाँ पहुँच गया। “गौरी, पीछे हटो!” उसने कहा, पर गौरी नहीं मानी। दोनों ने मिलकर तीन मजदूरों को बाहर निकाला। अचानक एक भारी चट्टान सरकने लगी  शंभू ने गौरी को धक्का देकर दूर किया, और खुद उसके नीचे दब गया।

सुबह तक बारिश थम चुकी थी। गौरी मिट्टी में बैठी थी, आँखों में नमी और दिल में तूफान। शंभू अब नहीं था बस उसके शब्द रह गए थे, “अगर पत्थर चटकें, तो आवाज़ निकालना मत भूलना।” सरकार ने रिपोर्ट में लिखा , “प्राकृतिक दुर्घटना” पर गाँव जानता था कि वो एक बलिदान था।

कुछ महीने बाद, खदान के पास एक नया स्कूल खुला। उस पर बोर्ड टंगा था, “शंभू सिंह स्मृति पाठशाला” गौरी अब वहीं बच्चों को पढ़ाती थी।

हर सुबह जब सूरज उगता, वो खदान की ओर देखती, जहाँ से कभी ठक-ठक की आवाज़ आती थी। अब वहाँ बच्चों की हँसी गूंजती थी। वो मुस्कुराती और कहती ,“देखो बच्चों, ये पत्थर चटकते हैं, पर टूटते नहीं। जैसे इंसान की हिम्मत, जो हर चोट के बाद और मज़बूत होती है।”

“चटकते पत्थर” सिर्फ़ धरती की कहानी नहीं, बल्कि इंसान की आत्मा की कहानी है  जो कठिनाई में भी प्रेम और करुणा को जीवित रखती है। गौरी ने अपने जीवन से यह साबित किया कि अगर कोई दिल से किसी को समझे, तो वो रिश्ता अमर हो जाता है  चाहे वो शब्दों में न कहा गया हो। शंभू चला गया, पर उसका दिया हुआ अक्षर “अ” अब गाँव के हर बच्चे के होंठों पर था,“अ” से आशा,“अ” से आवाज़,और “अ” से अमर प्रेम।

समाप्त

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