प्रेम कथा: टपकते आंसू

 लेखक: विनोद कुमार झा

दिल्ली की वह शाम कुछ अलग थी।  बरसात की बूंदें यूं बरस रही थीं जैसे किसी पुराने गीत की धुन हों, जो मन को भीतर तक भीगा जाए। कॉलेज का कैंपस खाली-सा लग रहा था। बस कुछ विद्यार्थी अपनी-अपनी छतरियों में सिकुड़े, भागते हुए क्लासरूम तक पहुंचने की कोशिश कर रहे थे। नीरा उसी कैंपस की छात्रा थी  एम.ए. इंग्लिश लिटरेचर की। शब्दों से उसका रिश्ता पुराना था, लेकिन भावनाओं को शब्द देना उसने कभी नहीं सीखा था। कविताएं उसे पढ़ना अच्छा लगता था, पर खुद लिखने की हिम्मत वह नहीं जुटा पाती थी। उसके भीतर बहुत कुछ था, जो आंखों से बह जाना चाहता था… लेकिन वो आंसू बनकर भी टपक नहीं पाते थे। उस दिन बारिश ज़रा तेज़ थी वह लाइब्रेरी की ओर दौड़ी ताकि किताबें वापस कर सके। भीगे बाल उसके गालों से चिपके हुए थे, आंखों में हल्की थकान और होंठों पर ग़ैर-इरादतन मुस्कान। लाइब्रेरी के अंदर जाते ही उसने देखा एक लड़का वहीं कोने में बैठा था, किताबों में डूबा हुआ। वह कोई फिल्मी हीरो जैसा नहीं था, पर उसके चेहरे पर एक अजीब-सी शांति थी। गहरी आंखें, हल्की दाढ़ी और सामने खुली वही किताब “गुलज़ार की नज़्में।”

नीरा ने जैसे ही उसी किताब की ओर हाथ बढ़ाया, उनके हाथ आपस में छू गए। एक पल के लिए दोनों ठिठक गए। किताब जैसे अब महज़ एक बहाना थी, असल में उस पल ने कुछ कह दिया था जो दोनों समझ नहीं पाए। “आपको भी गुलज़ार पसंद हैं?”  नीरा ने धीरे से पूछा। वो मुस्कुराया, “शब्दों से प्यार करने वाला गुलज़ार को कैसे न पसंद करे?”

“तो आप भी कवि हैं?” “नहीं,” उसने कहा, “बस कभी-कभी शब्दों से बातें कर लेता हूं, ताकि मन हल्का हो जाए।” “फिर तो आपसे मुझे भी बातें करनी होंगी,” नीरा ने हंसकर कहा। वो भी मुस्कुराया, “नाम बताओगी?” “नीरा।” “आर्यन।” बस इतना ही। पर कभी-कभी बस एक नाम, एक मुस्कान, और एक बारिश… ज़िंदगी का रुख बदल देती है।

नज़्मों के बीच जवानी की खुशबू : दिन बीतते गए, और अब कॉलेज की लाइब्रेरी उनके मिलने की जगह बन गई। नीरा रोज़ वही सीट चुनती जहां से आर्यन नज़र आए। कभी किसी किताब के बहाने, कभी किसी कविता की चर्चा में, दोनों धीरे-धीरे एक-दूसरे की आदत बनते गए।आर्यन का स्वभाव शांत था। वो ज़्यादा बोलता नहीं था, लेकिन जब बोलता तो हर शब्द में अर्थ होता।

एक दिन उसने नीरा से पूछा, “क्या तुम कभी बारिश में भीगना पसंद करती हो?” नीरा ने कहा, “हां, क्योंकि बारिश में जो आंखों से टपकता है, वो दिल का बोझ हल्का कर देता है।” आर्यन ने मुस्कुराकर कहा, “शायद इसलिए हर कवि को बारिश में अपने शब्द मिलते हैं।”नीरा ने पहली बार किसी के सामने खुद को इतना खुला महसूस किया था। आर्यन की आंखों में उसे वही अपनापन दिखता जो वह सालों से ढूंढ रही थी। धीरे-धीरे दोनों साथ-साथ चाय पीने लगे, कैंटीन में बैठकर दुनिया भर की बातें करने लगे।

एक दिन आर्यन ने अपनी डायरी निकाली। “यह क्या है?” नीरा ने पूछा। “मेरे अधूरे ख्वाब,” उसने कहा, “हर पन्ने पर कोई अधूरी नज़्म है।” “मुझे सुनाओ,” नीरा ने आग्रह किया। आर्यन ने पढ़ना शुरू किया- “हर शाम कोई चेहरा मन में उतर आता है, हर बारिश में कोई नाम भीग जाता है, जाने क्यों आंखें कुछ कहती हैं, पर होंठ खामोश रह जाते हैं…” नीरा कुछ नहीं बोली। बस उसकी आंखों में नमी तैर आई। वो नज़्म जैसे उसके दिल की आवाज़ थी टपकते आंसू बनकर शब्दों में ढल गई थी।

एहसासों का मौसम : अब दोनों के बीच कोई दीवार नहीं थी। कॉलेज की गलियों से लेकर शहर की सड़कों तक  हर जगह उनकी हंसी गूंजती थी। आर्यन के साथ नीरा को लगा कि जिंदगी का अर्थ सिर्फ सांस लेना नहीं, बल्कि महसूस करना है। वो उसे कविता सिखाता, और नीरा उसे मुस्कुराना। एक शाम इंडिया गेट के पास बैठकर आर्यन ने कहा, “नीरा, कभी सोचा है… प्यार शब्दों से नहीं, खामोशियों से होता है।” नीरा ने उसकी आंखों में देखा और धीरे से बोली, “तो क्या हमारी खामोशियां भी कुछ कह रही हैं?”

आर्यन मुस्कुराया, “शायद… तुम्हारी आंखों में मैं जो पढ़ रहा हूं, वही मेरी सबसे लंबी कविता है।” वो लम्हा ठहर गया था। सामने डूबता सूरज, हवा में हल्की ठंडक, और उनके बीच सुकून की खामोशी। नीरा ने महसूस किया  यही तो है प्रेम, जो बिना कहे सब कह देता है।

 बिछड़ने की आहट : लेकिन हर कहानी में एक मोड़ आता है। एक दिन आर्यन ने नीरा को बताया कि उसके पिता सेना में अधिकार… जहाँ प्रेम समय और दूरी की सीमाओं को पार करने लगता है…।

 बिछड़ने के बाद की खामोशियां : ट्रेन धीरे-धीरे स्टेशन से निकल चुकी थी। नीरा की आंखें अब भी वही रास्ता देख रही थीं  जहां से आर्यन की झलक गायब हो चुकी थी। बारिश अब तेज़ हो चुकी थी, बूंदें जैसे आसमान से नहीं, उसके दिल से गिर रही थीं। वो धीरे-धीरे घर लौटी, लेकिन घर अब घर नहीं लग रहा था। हर चीज़ में आर्यन की परछाईं थी, टेबल पर रखी चाय की प्याली, खिड़की के पास रखी गुलज़ार की किताब, और दीवार पर लटका कैलेंडर, सब जैसे उसके लौटने का इंतज़ार कर रहे थे। हर शाम वो खिड़की के पास बैठती, आर्यन की लिखी कविताएं पढ़ती और अपनी हथेलियों पर उसके स्पर्श को महसूस करती। कभी हवा चलती, तो लगता जैसे आर्यन ने फुसफुसाकर कहा हो “मैं यहीं हूं, तुम्हारे पास।”

 इंतज़ार की स्याही : दिन बीतते गए, पर नीरा का इंतज़ार नहीं। वो रोज़ उसे पत्र लिखती, लंबे-लंबे पत्र, जो कभी भेजे ही नहीं गए। हर पत्र के अंत में वह लिखती  “तुम लौटना ज़रूर… मेरे बिना इस कहानी का कोई अर्थ नहीं।” लोगों ने समझाना शुरू किया,“नीरा, जिंदगी रुकती नहीं, आगे बढ़ो।” वो बस मुस्कुरा देती, “मैं रुक नहीं रही, मैं बस किसी का इंतज़ार कर रही हूं।” उसने कॉलेज की नौकरी ठुकरा दी। अब वो कविता लिखने लगी थी, हर कविता में आर्यन की छवि, हर शब्द में उसका नाम। कभी पंक्तियां धुंधली पड़ जातीं, क्योंकि कागज़ पर गिरते आंसू स्याही से मिलकर उसे धुंधला कर देते। वे टपकते आंसू, जो अब उसकी रचनाओं की पहचान बन गए थे।

 एक चिट्ठी और एक सन्नाटा : एक शाम डाकिया दरवाज़े पर आया। “नीरा जी, लद्दाख से चिट्ठी आई है।” उसका दिल जैसे धड़कना भूल गया। हाथ कांप रहे थे, होंठों से शब्द नहीं निकल रहे थे। चिट्ठी पर आर्यन का नाम था। कांपते हाथों से उसने लिफ़ाफ़ा खोला और देखा अंदर बस कुछ पंक्तियाँ थीं:  “प्रिय नीरा, यहाँ बर्फ गिर रही है… पर तुम्हारी यादें मेरे दिल को गरम रखती हैं। लौटूंगा जल्दी, ताकि अधूरी कहानी पूरी हो सके। सदा तुम्हारा, आर्यन।”

नीरा की आंखें भर आईं। उसने चिट्ठी को सीने से लगा लिया और मुस्कुरा दी। उसे लगा, बस कुछ ही दिनों की बात है। लेकिन किस्मत की लिखी कहानियाँ अक्सर अधूरी रह जाती हैं। कुछ सप्ताह बाद, एक और चिट्ठी आई। इस बार प्रेषक था, भारतीय सेना का सूचना विभाग। उस पत्र में लिखा था- “हमें दुख है कि श्री आर्यन सिंह एक हिमस्खलन दुर्घटना में शहीद हो गए।” वो पत्र नीरा के हाथों से गिर पड़ा। कमरे में सन्नाटा था… बस दीवार से टकराकर उसकी सांसें लौट रहीं थीं और खिड़की के शीशे पर… आंसू टपक रहे थे भीतर से भी, बाहर से भी।

 टूटे सपनों के बीच जिंदा अहसास : नीरा ने कई दिनों तक खुद को कमरे में बंद रखा। ना कुछ बोली, ना किसी से मिली।बस आर्यन की तस्वीर के सामने बैठती और कहती - “तुमने कहा था लौटोगे… तुम झूठ नहीं बोलते थे।”धीरे-धीरे उसने खुद को फिर से खड़ा करने की कोशिश की। आर्यन की डायरी अब उसके पास थी। हर नज़्म में आर्यन का प्यार था, हर पन्ने में उसका स्पर्श।

वो डायरी खोलती और लिखती:- “तुम तो चले गए, पर तुम्हारी यादें अब भी सांस लेती हैं, हर सुबह तुम्हारी खुशबू इस कमरे में लौट आती है।” वो अब कवि बन चुकी थी- लेकिन उसकी कविताओं में रूमानीपन नहीं, एक आस्था थी। एक ऐसा विश्वास कि प्रेम शरीर से नहीं, आत्मा से जुड़ा होता है। और जब आत्माएं मिल जाती हैं  तो जुदाई का कोई अर्थ नहीं रह जाता।

समय का मरहम : साल दर साल बीत गए  नीरा अब शहर के एक कॉलेज में साहित्य पढ़ाती थी। उसके विद्यार्थी उसे “नीरा मैम” कहकर बुलाते  लेकिन वो अब भी उसी तरह मुस्कुराती, जैसे किसी के लौट आने की उम्मीद रखती हो। एक दिन एक छात्र ने पूछा, “मैम, क्या सच्चा प्यार कभी खत्म हो जाता है?” नीरा खामोश रही कुछ देर, फिर बोली, “नहीं, सच्चा प्यार खत्म नहीं होता… वो तो बस किसी कोने में टपकते आंसू बनकर बहता रहता है जो सूखते नहीं, बस दिल में जगह बना लेते हैं।” क्लास में सन्नाटा था। शब्द कम थे, पर अर्थ गहरे थे।

आत्मा का मिलन : उस रात फिर बारिश हो रही थी नीरा ने अपनी खिड़की खोली वही खिड़की, जहाँ से कभी आर्यन को आख़िरी बार देखा था। बाहर बिजली चमकी, हवा में वही पुरानी खुशबू थी। वो अपने पुराने बक्से से आर्यन की डायरी निकाली। अंदर एक सूखा गुलाब था वही जो आर्यन ने पहली मुलाक़ात में उसे दिया था। उसने गुलाब को हथेली पर रखा, आंखें बंद कीं। तभी एक हल्की हवा चली। डायरी के पन्ने अपने आप खुलने लगे। अंतिम पृष्ठ पर कुछ इस प्रकार लिखा था  “अगर मैं लौटकर न आऊं, तो समझ लेना… बारिश की हर बूंद में मैं हूं, तुम्हारी आंखों से टपकते हर आंसू में मैं रहूंगा।”

नीरा के चेहरे पर मुस्कान थी। आंखों से आंसू बहे लेकिन इस बार दर्द के नहीं, सुकून के। उसे लगा जैसे आर्यन उसके पास खड़ा है, धीरे से कह रहा हो  “मैं लौट आया हूं, नीरा… हमेशा यहीं था।” बारिश की बूंदें खिड़की पर टपक रही थीं,और नीरा के आंसू उनमें मिलकर कह रहे थे  “प्रेम कभी मरता नहीं… वह बस टपकते आंसू बनकर अमर हो जाता है।” “कुछ रिश्ते समय से परे होते हैं, जो सांसों से नहीं, अहसासों से चलते हैं। और जब दिल में प्रेम सच्चा हो, तो जुदाई भी मिलन बन जाती है…”।

समाप्त

Post a Comment

Previous Post Next Post