संगठन और राजनीति

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) के सरसंघचालक मोहन भागवत ने हाल ही में अपने संबोधन में उन राजनीतिक आरोपों पर परोक्ष प्रतिक्रिया दी, जिनमें कांग्रेस नेताओं ने संगठन पर “बिना पंजीकरण के काम करने” का आरोप लगाया था। भागवत ने स्पष्ट किया कि संघ को एक “व्यक्तियों के निकाय” के रूप में मान्यता प्राप्त है  अर्थात यह कोई पंजीकृत संस्था नहीं, बल्कि स्वयंसेवकों का नैतिक, वैचारिक और सामाजिक संगठन है। यह वक्तव्य केवल एक राजनीतिक प्रतिवाद नहीं, बल्कि भारतीय समाज के संगठनात्मक ढांचे और लोकतांत्रिक विमर्श की दिशा पर गहरी टिप्पणी भी है।

आरएसएस स्वतंत्र भारत के इतिहास में एक ऐसा संगठन रहा है जिसने बिना किसी औपचारिक सरकारी पंजीकरण या प्रत्यक्ष राजनीतिक हस्तक्षेप के समाज के विभिन्न क्षेत्रों में अपनी उपस्थिति दर्ज कराई है  चाहे वह शिक्षा का क्षेत्र हो, ग्राम विकास हो, या राष्ट्रवादी विचारधारा का प्रचार। लेकिन समय-समय पर इसके खिलाफ राजनीतिक दलों की आलोचना भी होती रही है कि इतनी व्यापक सक्रियता के बावजूद यह किसी कानूनी पंजीकरण के अंतर्गत क्यों नहीं आता। यह प्रश्न केवल प्रशासनिक नहीं, बल्कि वैचारिक भी है  आखिर “संगठन” की परिभाषा क्या है? क्या हर संगठन को राज्य की मुहर से ही वैधता मिलती है, या समाज की स्वीकृति ही उसकी असली पहचान है?

भागवत का यह कथन कि संघ “व्यक्तियों का निकाय” है, इस विचार को पुष्ट करता है कि संगठन का बल उसके सदस्यों के चरित्र, अनुशासन और आचरण में निहित होता है, न कि किसी कानूनी दस्तावेज़ में। भारतीय परंपरा में अनेक सामाजिक-सांस्कृतिक संस्थाएं बिना औपचारिक ढांचे के भी जीवित और प्रभावशाली रही हैं। फिर भी, यह भी एक सच्चाई है कि आज के लोकतांत्रिक भारत में पारदर्शिता, जवाबदेही और संस्थागत व्यवस्था की अपेक्षा अधिक प्रबल हो चुकी है। इसलिए किसी भी बड़े सामाजिक संगठन को अपने कार्यों और वित्तीय व्यवस्थाओं के प्रति जनता के प्रति उत्तरदायी रहना चाहिए।

राजनीति का दुर्भाग्य यह है कि वह हर वैचारिक बहस को “हम बनाम वे” की सीमा में बांध देती है। संघ और कांग्रेस दोनों ही इस देश की जड़ों में गहराई तक जुड़े नाम हैं  एक वैचारिक आंदोलन के रूप में, दूसरा राजनीतिक धारा के रूप में। यदि संवाद का स्वर आरोप और प्रत्यारोप से ऊपर उठे, तो यह बहस इस बात पर केंद्रित हो सकती है कि संगठन समाज को कितना सशक्त बना रहे हैं, न कि कौन किस ढांचे के अंतर्गत पंजीकृत है।

आज जब भारतीय समाज बहुलता, विविधता और वैचारिक स्वतंत्रता की राह पर आगे बढ़ रहा है, तब आवश्यक है कि संगठन और राजनीति  दोनों ही अपने कार्यों की वैधता को केवल कानून से नहीं, बल्कि नैतिक पारदर्शिता और सामाजिक उत्तरदायित्व से भी साबित करें। संघ पर लगे आरोपों के उत्तर में भागवत का यह वक्तव्य उसी संतुलन की ओर संकेत करता है, जहां संगठन की आत्मा और लोकतंत्र की जवाबदेही एक-दूसरे के पूरक बनें, विरोधी नहीं। यह विवाद केवल पंजीकरण या वैधता का नहीं, बल्कि उस मूल प्रश्न का है क्या समाज को जोड़ने वाली शक्ति विचार होती है या कागज़ी मान्यता? इस प्रश्न का उत्तर शायद वही दे सकता है, जो संगठन को केवल सत्ता या विरोध का औजार नहीं, बल्कि राष्ट्र निर्माण का माध्यम मानता हो।

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