विनोद कुमार झा
जब कोई बच्चा जन्म लेता है, तो उसकी हथेलियों को देख ज्योतिषी कहते हैं "इसकी किस्मत में राजयोग है" या "यह जीवनभर संघर्ष करेगा।" लेकिन क्या सचमुच भाग्य हमारी ज़िंदगी की दिशा तय करता है? अगर भाग्य ही सब कुछ होता, तो अर्जुन को युद्ध क्यों लड़ना पड़ता? अगर कर्म व्यर्थ होता, तो श्रवण कुमार को क्यों पूजा जाता? भाग्य एक स्थिर चित्र है, जिसे जीवन की गति और कर्म की चाल रंगों से भरती है। भाग्य भले ही प्रारंभिक धागा हो, लेकिन चादर तो कर्म से ही बुनी जाती है।
कुछ लोग मानते हैं कि जो लिखा है, वही होगा। वे तकदीर के भरोसे बैठ जाते हैं, मानो नदी के बीचोबीच नाव छोड़ दी हो और भगवान से कह रहे हों “जहां ले जाए, वही मंज़ूर।” पर क्या जीवन की दिशा तय करना ईश्वर का काम है, या हमारी हिम्मत और मेहनत का? यहीं से जन्म लेता है एक प्रश्न “क्या कर्म ही भाग्य है?”
यह प्रश्न केवल दार्शनिक बहस का विषय नहीं है, बल्कि एक जिंदा जद्दोजहद है जो हर इंसान अपने जीवन में झेलता है। कुछ लोग अभावों से निकलकर शिखर तक पहुंचते हैं, और कुछ सुविधाओं के बावजूद गर्त में चले जाते हैं। अगर भाग्य इतना ही प्रभावशाली होता, तो धीरुभाई अंबानी को तेल के डिब्बे नहीं बेचने पड़ते। अगर कर्म का कोई मूल्य न होता, तो एक अंधा संत सूरदास भक्ति की ऊंचाई पर कैसे पहुंचता?
आइए, एक ऐसे युवक की कहानी सुनते हैं जिसने भाग्य से लड़ना नहीं, बल्कि उसे बदलना सीखा। यह कहानी है सच्चे कर्म की, आत्मबल की, और उस विश्वास की जो कहता है "भाग्य पत्थर नहीं है, जिसे तोड़ा नहीं जा सकता। वह तो मिट्टी है, जिसे कर्म से गढ़ा जा सकता है।"
उत्तर प्रदेश के एक छोटे से गांव चंदौलीपुर में जन्मा अर्जुन नाम का एक लड़का गरीबी और संघर्ष का पर्याय था। उसका जन्म रात के तीसरे पहर हुआ था, और जन्म के साथ ही एक पंडित ने घोषणा की "इसका भाग्य भारी है, जीवनभर संघर्ष करेगा।" मां ने माथे पर हाथ रखा और सोच लिया कि यह बच्चा शायद उनका भाग्य नहीं, अभिशाप है।
अर्जुन ने बचपन से देखा कि उसके पिता हर रोज़ खेतों में खून-पसीना बहाते हैं, पर घर में दो वक्त की रोटी के लिए भी तरसते हैं। मां अक्सर कहती "जो भाग्य में नहीं है, वो नहीं मिलेगा।" अर्जुन इस बात को सुनते हुए बड़ा हो गया, लेकिन उसके भीतर कुछ और पनप रहा था एक ज्वाला, जो कहती थी, "अगर किस्मत नहीं है, तो उसे गढ़ा जाएगा।"
गांव के स्कूल में पढ़ाई करते हुए अर्जुन अक्सर मीलों पैदल चलता था। उसके जूतों में छेद होते, किताबें उधार की होतीं, पर आँखों में सपना होता था। एक दिन विद्यालय में एक मोटिवेशनल स्पीकर आया। उसने कहा, "किस्मत उनके लिए होती है जो तैयार नहीं होते। बाक़ी तो अपनी तकदीर खुद लिखते हैं।"
उस दिन से अर्जुन ने तय कर लिया कि वह अपनी कहानी किसी पंडित की जुबान से नहीं, अपनी मेहनत से लिखेगा। उसने खेत में काम करना शुरू किया, रात को पढ़ाई करता, और दो साल में गांव का टॉपर बन गया। लोग चौंके "जिसे दुर्भाग्यशाली कहा गया था, वह तो भाग्यशाली बनता जा रहा है।"
कॉलेज जाने का समय आया तो पैसों की भारी कमी थी। अर्जुन ने शहर जाकर मजदूरी की, ईंट ढोई, और वहीं एक सरकारी कोचिंग में दाखिला लिया। दिन भर मजदूरी, रात में पढ़ाई। शरीर थकता, पर आत्मा चमकती। आखिरकार मेहनत रंग लाई उसे यूपीएससी में चयन मिल गया। जब गांव लौटा, तो वही लोग जिनकी आंखों में तिरस्कार था, अब उसकी आंखों में सपनों की चमक देखने लगे।
उसकी मां रोते हुए बोली "लगता है पंडित ने ग़लत कहा था।" अर्जुन मुस्कराया "नहीं अम्मा, पंडित सही था...भाग्य भारी था, पर मैंने उसे उठाना सीख लिया।"
आज अर्जुन एक जिला कलेक्टर है। वह अक्सर गांवों में जाकर युवाओं को प्रेरित करता है, और हर बार कहता है “भाग्य लकीरों में नहीं, कर्म की धड़कनों में बसता है। अगर पसीना बहाने का हौसला है, तो किस्मत घुटनों पर आ जाएगी।”
उसके दफ्तर में एक बोर्ड टंगा है,"कर्म ही भाग्य है, क्योंकि भाग्य वही करता है जो कर्म कहता है।"
यह कहानी हमें यही सिखाती है कि भाग्य कोई पूर्वनिर्धारित लकीर नहीं, बल्कि कर्म की प्रतिक्रिया है। जिस तरह बीज बोया जाए, उसी तरह पेड़ उगेगा। इसलिए यदि जीवन में परिवर्तन चाहिए, तो तारे नहीं, अपने प्रयास देखिए। भाग्य केवल एक आरंभिक पन्ना है, पूरी किताब तो आपके कर्म से ही लिखी जाती है।